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लोभते जग अठ वच कह, लोक में अपजस भये; ताहि तजिक सत्यवादी, जिनहि पद सुरगन नये ।। सत्यतै गुण ज्ञान लहिये, सत्पते कुल उच्चये; सत्यतै शिवलोक बसिये, सत्य प्रङ्गहि सेवये ।।३२२॥ शौचसे मन रहे निर्मल, बाह्य आभ्यंतर सदा: प्राप्त ध्यान जिनेन्द्र पूजा, अष्ट द्रव्यहि समुदा । भाव अविनल शुद्ध राखै, जिनहि शिवसुन्दरि वर; शौच अंगहि भजहु पंजम, धर्म बुत भव अपहरं ॥३२३ संजमेन्द्रिय पंच दंडहि, सजमी नहि भव वहै; संजमो षटकाय रक्षा, संजमी शुचि तन रहे । संजमी लाहि सुख्य सुरपति, सजमी व्रत मंड है; अब पाठमी भज प्रङ्ग संजम, ताहित शिवपद लहै ॥३२४॥ तपहि द्वादश भेद भजिलं, प पर प्र म ; महसुस जीतहि, तपहि ध्यानहि संचरं । सहित सुरगति बसरो, तप हि शक्र हि पद धर; तप हि केवलज्ञान प्रगट हि. तप हि निरवाण हि कर॥३२॥ त्याग अङ्ग हि भजहु अष्टम, दान चारौ विधि धरौ । आहार औषधि अभय जीवन, शान शास्त्र हि जुत करो ॥ उत्कृष्ट मध्यम जघन पात्रहि, भावसौं पायमि परौ । भोग भवि सूर मुख्य भूजहि, फेर भवदधि ऊवरौ ।।३२६।। नाम प्राकिंचन जू अङ्ग हि, सकल परिग्रहको यौ। बाह्य दश हि ज़ क्षेत्र आदि हि, चौदहा अभि अलयो॥ साथ निश्चय ग्रंथ पालहि, श्रावक हि न्यौहार ची। सुरग गति फिर मोक्ष पहुंचे, धर्म सों भवि परनयौ ।। ३२७। शील सागर ज्ञान नागर, चित्त चारित धारिक । शीलवंत हि इन्द्र बंदहि, प्रहमिन्द्र पुनि अवतारकै ।। शील भज सुख मोक्ष दायक, भवहि दुःख निवारक । नव बाड़ ब्रह्मचर्य पालहु, मन बचन तन वारिकं ॥३२८॥
उक्तंच-कवित्त तिय थल वास प्रेम रुचि निरखन, दे परीक्ष भाषत मधबैन । पूरव भोग केलिरस चिन्तन, गरुव प्रहार लेत चित चैन । कर शुचि तन शृंगार बनावत, तिय एयंक मध्य सुख सैन । मन्मथ कथा उदरभर भोजन. ए नव' बाड़ जानमत जन ।।३२६।।
चौपाई
ए. दश लक्षण धर्म विख्यात, मुक्ति वृक्ष को बीज मुहात । दहि कर्मनको हता सोइ, संपूरण सुख करता होइ ॥३३०।। रत्नत्रय तप कर मुनक्षा, मूलोत्तर गूण पालक देश । तीन लोक में दुर्लभ धर्म, समवसरन लक्ष्मी को शर्म ॥३३॥ धर्म मन्त्र पाकर क्षण कर, स्वर्ग योपिता इच्छा धरें। तीन जगत में दुर्लभ इष्ट, पद पद में मिलियौ संतुष्ट ।।३३२।। माता पिता अरु मित्र जु धर्म, चिन्तामणि कल्पद्रम शर्म । कामदेव नव निधि भंडार, सहगामी भव भव हितकार ||३३३॥ यह जग धन्य पुरुष है सोय, तजि परमाद धर्म भजि कोय । जे शठ मूढ़ गमहि विन धर्म, विन मींगनके वृषभ विशम ॥३३४}} यही जान भवि धर्म हि करे, ताप दिन दिन विस्तर। धर्म शुक्ल यानहि लवलीन, मुकति वधू के सुख प्राधीन ||३३५।।
इति धर्मानुप्रेक्षा
अडिल्ल
ये अनुप्रेक्षा जान मुल वैराग को । बहु गुण रत्न विधान हन्यो दुख राग को ।। जिन मुनि वुधिजन सकल तास सेवित जहां । पापं दूर कर देहि अपार यातं कहा 11३३६।।
अप्सराय प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार का रत्य करती थीं। इस प्रकार नत्य में सम्मिलित इन्द्र पक्का जादुगर मालूम होता था । इन्द्र की सारी कलाय उन नतंकी देवियों में बंट गयीं । विक्रिया ऋद्धि से नृत्य करता हुमा इन्द्र माता-पिता ग्रादि सभी जनों को प्रसन्न करने लगा।
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