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महाबीर तो छष्यस्थ अवस्था में उपदेश देते अथवा बोलते नहीं थे, यह स्वयं श्वेताम्बर शास्त्र प्रकट करते हैं। ऐसी दशा में उस अवस्था में गौशाल का भगवान का शिष्य होना असंगत है।
श्वे० के इस मिथ्या कथा के प्राधार रो लोगों का ख्याल है कि महावीर जो ने गौशाल से बहुत कुछ सीखा था और वह नग्न इसी के देखा देखी हुए थे, परन्तु ऐसी व्याख्यायें निरी निर्मूल हैं, यह हम अन्यत्र बता चुके हैं (वोर वर्ष ३ अंक १२-१३) स्वयं श्वे० ग्रंथ भगवती सूत्र में कहा गया है कि जब गोशाल महाबीर से मिला था तब वह वस्त्र पहने हुए था और जब महावीर जी ने उसे शिष्य बनाया तब उसने वस्त्रादि उतार कर फेंक दिये थे। (देखो उपाशकदशासूत्र का परिशिष्ट), इस दशा में महावीरजी पर गोशाल का प्रभाव पड़ा ख्याल करना कोरा ख्याल ही है।
तीसरे संजयवरथीपुत्र को बौद्ध शास्त्रों में मोगलान (मौद्गलायन) और सारीपुत्त का गुरु बतलाया गया है । उपरान्त संजय के यह दोनों शिष्य बौद्ध धर्म में दक्षित हो गये थे। नौद्गलायन के विषय में हमें धौ प्रमितगति आचार्य के निम्न श्लोक से विदित होता है कि वह पहिले जैन मुनि था
रुष्ट: श्री वीरनाथस्य तपस्वी मौष्टिलायनः । शिष्यः श्रीपाश्र्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ।।६।।
शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत ।" अर्थात पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा में मौडिलायन नाम का तपस्वी था। उसने महावीर भगवान से रुष्ट होकर बुद्ध दर्शन को चलाया और शुद्धोदन के पुत्र बुद्ध को परमात्मा कहा । श्लोक के इस कथन पर शायद कतिपय पाठक एतराज करें, क्योंकि बौद्ध दर्शन के संस्थापक तो स्वयं म० बुद्ध थे, परन्तु बौद्ध शास्त्रों में मौडिलायन (मौद्गलायन) और सारीपुत्त विशेष प्रख्यात थे और वे बौद धर्म के उत्कट प्रचारक थे, ऐसा लेख है। इस अपेक्षा यदि मौदगलायन को ही बौद्ध दर्शन का प्रवर्तक अनलाया गया है तो कुछ अभियुक्ति नहीं है। स्वयं बौद्ध ग्रंथों में भी भगवान महावीर के सम्बन्ध में ऐसी ही गलती को गई है। उनमें एक स्थान पर उनका उल्लेख "अग्गिवेशन" (अग्निवश्यायन) के नाम से किया है, परन्तु हम जानते हैं कि भगवान महावीर का गोत्र काश्यप था और उनके गणधर सुधर्मास्वामो का अग्निवश्यायन गोत्र था। इस तरह महावीर जो के शिष्य की गोत्र अपेक्षा उनका उल्लेख करके बौद्धाचार्य ने भी जैनाचार्य को भांति गलती को हैं ।प्रतएव इसमें संशय नहीं कि मौद्गलायन भगवान पार्श्वनाथ को शिष्य परम्परा का एक जैन मुनि था। जैन ग्रन्थों में इनके गुरु का नाम संजय अथवा संजयवैरसोपत्र बतलाते हैं। जैन शास्त्रों में भी हमें इस नाम के एक जैन मुनि का अस्तित्व उस समय मिलता है। यह चारणऋद्धिधारी मनि थे और उनको कतिपय शंकायें थीं जो भगवान महावीर के दर्शन करते ही दूर हो गयी थी। श्वेताम्बरों के उत्तराध्ययन सत्र में भी एक संजय नामक जन मुनि का उल्लेख है। ऐसी अवस्था में जैन मुनि मौद्गलायन के गुरु संजय का जैन मुनि होना विकल संभव है और यह संभवतः चारणऋद्धिधारी मुनि संजय ही थे। इसको पुष्टि दो तरह से होती है। पहिले तो संजय को
ये जो बौद्ध शास्त्रों में अंकित है वह जैनियों के स्याद्वाद सिद्धान्त को विकृत रूपान्तर ही हैं। इससे इस बात का समर्थन ताकि स्यावाद सिद्धान्त भगवान महावार से पहिले का है, जैसे कि जैनियों को मान्यता है, और उसको गंजय ने पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा के किसी मुनि से सोखा था, परन्तु वह उसको ठीक तीर से न समझ सका और विकृत रूप में ही उसकी घोषणा करता रहा । जैनशास्त्र भी अव्यक्त रूप में ही इसी बात का उल्लेख करते हैं। अर्थात वह कहते हैं कि संजय को शंकायें थीं जो भगवान महावीर के दर्शन करने से दूर हो गई। यदि वह बात इस तरह नहीं थी तो फिर भगवान महावीर और म० बुद्ध के समय में इतने प्रख्यात मतवर्तक का क्या हया, यह क्यों नहीं विदित होता ? इसलिए हम जैन मान्यता को विश्वसनीय पाते हैं और देखते हैं कि संजय वैरत्थी पुत्र को मोगलान (मोगलायन) के गृह थे वह जैन मुनि संजय हो थे । दूसरी ओर इस व्याख्या की पुष्टि इस तरह भी होती है इन संजय की शिक्षा को सदश्यता यूनानो तत्ववेत्ता पर्रहो की शिक्षायों से बतलाई गई है । एक तरह से दोनों से समानता है और इस परहों ने जैम्नोसूफिट्स सूफियों से, जो ईसा से पूर्व की चौथी शताब्दि में यूनानी लोगों को भारत के उत्तर पश्चिम भाग में मिलते थे, यह शिक्षा ग्रहण की थी । यह जैम्नोंसुफिटस तत्ववेत्ता निर्गन्थ दिगम्बर साघुओं के अतिरिक्त कोई नही थे। यूनानियों ने इन जैन साधुओं का नाम "जम्नोसूफिट्स" रखा था, अतएव जैन साधुओं से शिक्षा पाये हुए यूनानो तत्ववेत्ता परहो की शिक्षाओं से उक्त संजय की शिक्षाओं का सामंजस्य बैठ जाना, हमारी उक्त व्याख्या की पुष्टि में एक और स्पष्ट प्रमाण है । इस तरह यह तीसरे प्रख्यात् मतप्रवर्तक जैन मुनि थे इसमें संशय नहीं है, अतएव इनकी गणना अज्ञानमत में नहीं
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