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दान लाभ भोगो उपभोग, वीरज केवल दरशन जोग । केवलज्ञान अनन्त प्रकाश, ये हो भव लब्धी सम भास ॥शा लोकालोक चराचर भाव, बध परजय विधिवंत सुहाव । ले सब प्रान एक ही बार, झलके केवल मुकुर मझार ।।६।। अनंत चतुष्टय सजि संयुक्त, तिनके नाम लिखौ श्रुत उक्त । दरशन वरनी कोनी क्षीन, अनंत दरशन प्रापति लोन I७॥ ज्ञानावरणी कर्म निवार, ज्ञान अनन्त लह्मी गुणधार । मोह करमको कोनी नाश, सुख अनन्त तिष्ठ नभ बास ।।८।। अन्तरायको क्षय कर धीर, वीर्य अनन्त भये वर वीर । दिव्य परम औदारिक देह, कोटि भानु द्युति जीती तेह ।।६।। और अनेक संपदा सार, वरणत होय बहुत विस्तार । पंच हजार धनुष परवान, अन्तरीक्ष प्रभु उपजन झान ||१०|| ज्यो शशि सोहै अम्बर थान, तैसे ही प्रभ वीर महान । निर्मल गगन भयौ जु अनूप,दिशि विदिशा सब प्रमल सरूप ||११|| पहप अंजली क्षिपहिं जु देव, गन्धोदक वरष बह भेव । रत्न धूलि दश दिशि पूरन्त, मन्द मन्द अति वायु बहत ।।१२।। कल्प लोक अनहद रव भयो, घंटा शब्द मनोहर व्यौ । होय मध ध्वनि अति गम्भीर, मनौं सिन्धु यह गर्जन नीर ।।१३।। सिंहासन हरि कंपित भयौ, सकल मान तनत गल गयो । नम्रीभत मौलि निज जान, देखो सो आश्चर्य महान ।।१४||
जब महावीर भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के प्रभाव से देवताओं के यहां स्वर्ग में अपने आप घंटों का मेघ के राश गरजना प्रारम्भ हो गया, तब देवगण भी ग्रानन्दसे नाचने लगे। कल्पवृक्ष पुष्पांजलिके समान फलोंकी बुष्टि करते हुए तमाम दिशायें स्वच्छ हो गई । प्राकाश भी बादलों से रहित पूर्ण निर्मल हो गया, इन्द्रोंका आसन एकाएक चलायमान हो उठा, मानों केवलज्ञान के प्रानन्दोत्सव में वे इन्द्रों का अभिमान सहन नहीं कर सकते हैं। इन्द्रों के मुकुट स्वयं नम्रीभूत हो गये। इस तरह स्वर्ग में यह आश्चर्यकारी घटनायें जब घटने लगो तब इन्द्रको निश्चय हो गया कि, भगवानको केवल ज्ञानको प्राप्ति हो गई है। इसके प्रभावसे वह आनन्दित हो उठा और अपने मासनसे उठकर प्रभु की भक्ति में अपने मनको लगाने लगा।
स्वीकार किया है। जिनके बीच में महावीर स्वामी रह रहे थे, वे महात्मा बुद्ध से आकर कहते थे कि भगवान महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और एक अनुपम नेता है, वे अनुभवी मार्ग प्रदर्शक हैं, बद्प्रख्यात हैं, तत्ववेत्ता है, जनता द्वारा सम्मानित हैं और साथ ही महात्मा बुद्ध से पूछते थे कि आपको भी का सर्वश और सर्वदर्शी कहा जा सकता है ? महात्मा बुद्ध ने कहा कि मुझे सर्वज्ञ कहना सत्य नहीं है। मैं तीन ज्ञान का धारी हूँ। मेरी सर्वज्ञता हर समय मेरे निकट नहीं रहती । भगवान महावीर को सर्वज्ञता अनन्त है, वे सोते, जागते, उठते, बैठते हर समय सर्वज्ञ हैं।
ब्राह्मणों के ग्रन्थों में भी महावीर स्वामी को सर्वज्ञ कहा है। आज कल के ऐतिहासिक विद्वान भी भगवान महावीर को सर्वज्ञ कहते हैं।
केवलज्ञान की प्राप्ति एक ऐसी बड़ी और मुख्य घटना थी कि जिसका जनता पर प्रभाव हुए बिना नहीं रह सकता था। कौन ऐसा है जो मर्वज्ञ भगवान को साक्षान आने सन्मुख पाकर आनंद में मग्न न हो जाय । मनुष्य ही नहीं देवों के हृदय भी प्रसन्न हो गये । श्रद्धा और भक्ति के कारण उनके दर्शन करने के लिए वे स्वर्गलोक से जम्भवाम में दौड़े आये देवों और मनुष्यों ने उत्सव मनाया, ज्योतिषी देवों के इन्द्रने मानो त्यागधर्म का महत्व प्रकट करने के लिये ही महावीर स्वामी के समवशरण की ऐसी विशाल रचना की कि जिसको देखकर कहना पड़ता था कि यदि कोई स्वर्ग पृथ्वी पर है तो नहीं है, यही है यही है।
तीर्थंकर भगवान के समवशरण की यह विशेषता है कि उसका द्वार गरीब-अमीर, छोटा-बड़ा, पापी-धर्मात्मा, सबके लिये खुला होता है। पशु-पक्षी तक भी बिना रोक-टोक के समवशरण में धमोपदेश सुनने के लिये आते हैं। जात-पात, छूत-छात और ऊँच-नीच का यहां कोई भेद नहीं होता। राजा हो या रंक, बाह्मण हो या चाण्डाल सब मनुष्य एक ही जाति के हैं और वे सब एक ही कोठे में बैठकर आपस में ऐसे अधिक प्रेम के साथ धर्म सुनते हैं, मानों सब एक ही पिता की सन्तान हैं।
भगवान के दर्शनों से वैर भाव इस तरह नष्ट हो जाते हैं, जिस तरह सूर्य के दर्शनों से अन्वकार। तीर्थकर भगवान की शान्त मुद्रा और बीतरागता का प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही नहीं, किन्तु कर स्वभाव वाले पशु-पक्षी तका पने वैर भाव को सम्पूर्ण रूप से भूल जाते हैं । नेवला-साप, बिल्ली-चूहा, दोर बकरी भी शान्तचित्त होकर आपस में प्रेम के साथ मिल-जुलकर धर्मोपदेश सुनते हैं और उनका जातीय बिरोध तक नष्ट हो जाता है । यह सब भगवान महामोर के योगबन का माहात्म्य था। उनकी आत्मा में अहिंसा की पूरी प्रतिष्ठा हो चुकी थी, इसलिये उनके सम्मुन्न किसी का भी वैर स्थिर नहीं रह सकता था।