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इन्द्र अवधि कर जान्यौ जास, केवलज्ञान भयो जिन तास । सिंहासन तजि चलि पद सात, नमें जु चरण शीस धर हात ।।१५।। तय इन्द्राणी पूछे एव, कारण कौन कहो भो देव । वीर नाथ निज अतिशय सब, सकल सभा प्रभु भाषौ तबै ॥१६।। ज्योतिषवासी देव जु इन्द्र, आसन कंप भये सब बन्द 1 सुरगण मरत्र सुपरब रीत, सिंहनाद रव अनहद प्रीत ।।१७।। भवनपतो पाश्चर्य लहेइ, मुकूट नमित आसन कोय । शंखध्वनि अनहद भई तब, जान्यो केवल अतिशय सर्व ।।१८।। ध्यंतर सकल भयो कहराब, भेरी अनहद पूर रहाव । नम्रीभूत भये तन ठौर, अब वरणन आये कछु और ।।१६।। वह प्रकार अतिशय जु लहेब, केवलज्ञान चिन्ह चहुं देव । बन्दन काज कल्प धिपराज, घंट वजाय चलं करिराज ॥२०॥ प्राज्ञा दई चलाहक देव, सकल विभूति रची बहु भेव । शीस नाय आदिश तिहि लयो, बहु परकार विक्रिया ठयौ ।।२१॥ प्रथम विमान रचौ रमणीक, जोजन एक लाख को ठीक । मुक्तालय वत शोभत जास, दिव्य रत्न तिहि तेज प्रकास ॥२२।। फिर ऐरावत गज मद भरौ, उज्वल मनी फटिक गिरि धरौ । जम्बद्धोप प्रमाणहि अंग, मस्तक सोहै अती उत्तंग ॥२३॥ दोरघ शुड रुरै भूमाहि, अति बलवंत जु वरनों काहि । कामरूप छवि अंग रसाल व्यंजन लक्षण सहित विशाल ॥२४॥ दोरघ ओठ बन अति अरुन, सेत वरण सोहैं ता दशन। घंटा घने ग्रीवमें माल, मानो नरपत उदय किय हाल ॥२५॥ दोरघ श्वांस लेत अति सोय, मनों दुन्दुभी शब्द जु होय । अति आनंद पंक्ति रमणीय, कर्ण चंबर सोहैं कमनीय ।।२६।। मद निरझरत लिप्त अति अंग, परबत सम चाले मन रंग । किकिणि शब्द होय अधिकाय, दीपति रही दशों दिश छाय ।।२७।। ताक मुख बत्तीस बखान, मुख प्रति दशन अष्ट उनमान । दंत दंत सर एकहि भरयी, जलकर चहूं ओर लह रह्यौ ॥२८॥ सर प्रति कलिनिको है वास, मिति बत्तीस पृथककर जास । कमालनि प्रति हैं कमल बतीस, दल बत्तीस, कमल प्रति शीस ।।२।। दलदल प्रति अपछरा प्रचान, हैं बत्तिस बत्तिस परमान । दिव्यरूप मन हरै सु एव, नृत्यत सकल सुरेशहि सेव ।।३०|| छबीस कोटि चौरासी लाख, अड़तिस सहस छस तह भाख । छप्पन अधिक सबै कोजार, यह सौधर्म इन्द्र वर नार ||३|| मुख विकसत इन्दीवर जास, ताल मृदंग गीत रस रास । इहि प्रकार शोभित गजराज सापर इन्द्र लिये सब साज ।।३।। शची सहित अति पुण्य उपाय, बहु प्राभरण अंग पहिराय । वर्धमान जिन केवलज्ञान, करन महोत्सव चलै महान ||३३॥ अरु प्रतीन्द्र निज वाहन रूढ़, सब परिवार सहित मन गूढ । सज सामानिक देव प्रमान, सहस चौरासी इन्द्र समान ||३४|| हैं तेतीस पुरोहित देव, तितने मंत्री इन्द्रहि देव । बारह सहस प्रथम मन लाई, इन्द्र नजीक परिधि सम थाई ॥३५॥
उसी समय ज्योतिषी जाति के देवों के यहां सिंहनाद वाजे का शब्द हया । सिंहासन भी कंयायमान हो गया। इसी तरह भवनवासी देवों के यहां भी शंख की ध्वनि होने लगी। ब्यंतर देवोंके महलों में भी भेरी अपने आप गड़गड़ाने लगी, अन्य आश्चर्य जनक और भी पूर्वकी तरह घटनायं हुई इस तरहको महान पाश्चर्यमई घटनामों का श्रवण कर सब इन्द्रोंने मस्तक नवाकर भगवानको परोक्षमें ही नमस्कार किया। और ज्ञान कल्याणक, उत्सब मनाने के लिये सौधर्म इन्द्र बाजोंको बजवाता हमा तमाम देव समूह को साथ लेकर स्वर्ग से भारत वसुन्धरा की भूमि पर उतरा ।
बलाहक नामके देवोंने जो विमान बनाया था वह मोतियों को मालाओं से इतना शोभायमान हो रहा था, रत्नमई दिव्य तेजसे चारों तरफ झलझलाहट हो रही थी। छोटी-छोटी पंटियों के हिलने से जो शब्द निकलता था वह कानोंको बहुत ही प्रिय मालूम होता था। नागदस नामक अभियोग्य जातिके देवने ऐरावत हाथी की रचना कर डाली, वह बहुत ऊँचा था, उसकी सूड बहुत ही सुन्दर और सुहावनी मालूम होती थी। उसका मस्तक ऊँचा और चौड़ा था, बहत बलवान था। शरीर यहत स्थल, अनेक सू'डोंसे सुशोभित धा, इच्छित रूप बनाने वाला, श्वास उच्छाससे सुगंधि निकलती थी, दुन्दभी बाजोंकी तरह शब्द करता हुमा, कानरूपी चमरोंसे सुशोभित, दो बड़े-बड़े घंटे बंधे हुए बहुत ही मनोज्ञ मालूम होते थे। गलेको घंघरूकी मालायें सुशोभित कर रही थीं, वर्ण सफेद था, सोनेका सिंहासन पीठ पर बहुत ही दिव्य मालूम होता था। उस हाथीके ३२ मुंह थे, हर एक दांतपर ३२ तालाव जलसे भर रहे थे। प्रत्येक तालाबमें एक-एक कमलिनी तथा हर एक कमलिनीके आसपासमें ३२-३२ कमल थे. प्रत्येक कमलके ३२-३२ पत्ते थे उन प्रत्येक पत्तेपर नाचने वाली सुन्दर प्रप्सरायें नृत्य करती थीं। वे अप्सरायें
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