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श्री देवी श्री कर बढ़ाब, हो देव लज्जासों चाब। धति धोरज घारै सब काज, कीर्ति बढ़ावं कीरति साज ॥१७॥ बुद्धि बुद्धि को करे अपार, लक्ष्मी लक्ष्मी को भण्डार । प्रभ अम्बा प्राज्ञा चित धरी, दिन दिम प्रीति बढ़ावै खरी ।।१७२।। माता निर्मल सहज सुभाय, वे सेबै निज कारण पाय । फटिक समान उदर निरदोय, त्रिवली सहित हृदय सन्तोष ।।१७३||
भगवान वर्तमान का माता के गर्भ में पाना । 'मास अषाढ़ शुक्ल छट जान, नखत उत्तरा अन्त प्रमान । अच्युत पति चय धर्म सनेह, प्रियकारिणि उर गर्भ धरेह ।।१७४] चतुर निकाय देव घर जब, अनहद शब्द भयो अति तबे । कल्पवासि धर घंटा बजे, सिंहनाद ज्योतिष गृह गजै ।।१७५।। भवनपती शंख ध्वनि भई, व्यन्तर धाम भेरि गृह गई। वह विध भयो अचज अनेक, सुरपति प्रासन कपी टेक ११७६।। तीन ज्ञान धारी सुरराय, जान्यौ गर्भ धर्यो प्रभु प्राय । तवं त्रिदशपति मन हषियौ, आप बाप वाहन चढ़ि कियौ ।।१७७||
गर्भ कल्याण के लिए देवों का कुण्डलपुर प्राना।
आभूपण पहर निज सबै, जोति दशौंदिश फैली तब । वजा छत्र जुत सरस विमान, छाय रह्यो नभ मण्डल जान ।।१७८।। जय जय शब्द करत मन लाय, आये कुण्डलार समुदाय । देवो देव विमान अपार, दिश दशहू रुध्यो पुर सार ।।१७६।। राजभवन प्रायी सुरराय, जिनपति मान भक्ति उर लाय। सिंहासन बैठारो राय, हेमकलश अभिषेक कराय ।।१०।। पूजा करी इन्द्र मन लाय, भुषण बसन सर्व पहिराय । गर्भमांहि प्रभ को थुति कोन, भक्ति सहित बहु आनन्द लान ।।१८१॥ इत्यादिक अतिशय बहुं कयों, गर्भ महत्व महागूण भयो। तेरम द्वाप रुचक गिरि जास, छपन देबो को नहं वास ।।१२।। ते जिन माता सेवा काज, राखो दिक कुमारो का साजाप्रपम इन्द्र को प्राज्ञा वान, रहत सदा सा अपने थान ।।१५३।। बार-बार फिर कर परणाम, गये शक्राति निज-निज धाम। परम पुण्य को इन्द्र बड़ाय, सो उपमा वरणो नहिं जाय ।।१८४||
जिन माता की सेवा के लिये आई हई देवियों का कार्य वर्णन । अब जिन माता सेवे देवी दुद्धि पस। कोहि सड़ावहिं अंग, कोई मुख विहसा बहिरंग ।।१८।। कोई नित मंजन विधि कर, कोई ले ताम्बुल जु धरै । कोई सेज र छविकार, कोई पाय प्रक्षाले सार ॥१८६।। कोई दिव्य वसन पहिराय, कोई केश सभार बंधाय। हेम रत्न आभरण जु कोय, अंग अंग पहिराब सोय ||१८७।। कोई कज्जल देह निहर, कोई तनको करहि सभार। रचि पाहार कराव कोइ, कोई प्रासक जल मुख धोइ ॥१८८।। कोई पुहुप माल गुहि देइ, कोई चन्दन खौर करेइ । रतनचूर कोइ पूरं चौक, बहुविधि रंग करहि कोई नौक ॥१५६।। तुगसदन जब निशपत होय, मदि दीपक उजियारे कोय। ऐसे सख संधान बढ़ाय, सेवें खड़े सपरस पाय ।।१६।। कवहूं बन कोड़ा को जाय, गावं मधुर बचन समुदाय । कबहूं नृत्य कर सुख पाय, वाद्य कथा बहु कहै बनाय ।।१६।। इत्यादिक बहु करें उपाय, ऋद्धि विक्रिया के परभाय । जिन माता को हर्ष बढ़ाय, करें रंग देवी मन लाय ।।१६२॥
स्वन्न में मालाओं के देखने से सुगन्धित शरीर वाला और श्रेष्ठ ज्ञानी होगा तथा पूर्ण चन्द्रमा के दर्शन से वह पुत्र धर्मरूपी अमृत वर्षण से भव्य जीवों को प्रसन्न करने वाला होगा। सूर्य के देखने से वह अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाशक तया उन्हीं के समान कांतिबाला होगा। जलसे परिपूर्ण घड़ों के देखने का फल यह है कि वह अनेक निधियों का स्वामी तथा ज्ञानध्यान रूपी अमृत का घट होगा। मछली के जोड़े देखने से सबके लिये कल्याणकारी तथा स्वयं महान सुखी होगा। सरोवर देखने से शुभ लक्षण तथा व्यंजनों से सुशोभित शरोर धारो होगा । समुद्र के देखने से तो केवललब्धियों बाला केवलज्ञानो हामा तथा सिंहासन देखने से महाराज पद वाच्य जगत का स्वामा होगा । स्वर्ग का विमान देखने का यह फल हुमा कि, वह पुत्र स्वर्ग से पाकर अवतार धारण करेगा और नागेन्द्र भवन के अवलोकन से अधिज्ञान रूपो नेत्र को धारण करने वाला होगा। रत्ना के ढेर देखने से वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्रमादि रत्नां को खानि होगा और निर्मल अग्नि के दर्शन से वह कर्मरूपो ईधन को छार करने वाला होगा। अंत में गजेन्द्र के दर्शन का फल यह हुमा कि, वह अंतिम तीर्थंकर स्वर्ग से भाकर तुम्हारे निर्मल गर्भ में प्रवेश करेगा।