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यह विधि निशि बासर बहु जाय, नवम मास तब लाग्यौ आय। प्रश्न प्रकर्षण देवी कर, माता सीख शीस पै घरै ॥१६॥ गूढ़ अर्थ शब्दादिक क्रिया, नाना प्रश्न करें सुर श्रिया। कहत पहेली और निरोष्ठ, काव्य श्लोक धर्म की गोष्ठ ।।१६४॥
प्रहेलिका वर्णन महागुरुन को गरु है कोय ? जोगी श्रय जग जाहिर सोय। जो अतिशय मंडित श्रौतीस, गुण अनन्त धारै जिन ईश ।।१९५॥ वचन प्रमाण कहै को माय? जग सर्वज्ञ कहा वै प्राय । दोष अठारा रहित शरीर, वीतराग है जो जगहीर ॥१६६।। सुधासिंधु कयितु है काहि ? जन्म मृत्यु विध दियो बहाहि । जिनवर मुख बहुज्ञान प्रकाश, सो अमृत दुर्भत विषनाश ॥१७॥ ध्यनवंत वृध को जगमाहि ? कौन ध्यान परमेष्ठित पाहि । सप्त तत्व को श्रद्धा कर, धर्म शुक्ल जो ध्यानहि घरै ।।१९।। तुरत हि करनी करता कौन? पूटन हुई खिदैनन; जो सनन्त दर्शन पर जान, दृढ़ चारित्र धरै परवान ||१६ सहगामी जियको को होय ? दया धर्म बांधव है दोय । पाप महा अरि नारी जोय, सरव दिशा रक्षक है सोय ।।२००। धर्म होय वयों या जगमाहि? दर्शन ज्ञान चरित्र धराहि। व्रत अरु शील सर्व प्रादर, उत्तम क्षमा प्रादि दा धरै ।।२०१॥ धर्म लनो फल लोक मझार, होय विभूति इन्द्रपद सार । ए मुख लहि तीर्थकर होय, फिर शिवपुर को पहं सोय ॥२०॥ लांछन कौन धर्म के कहे, शांतिभाव अतिचि लहलहे । निरहंकार जु रहै सदीव, शुद्ध क्रिया तत्पर सो जीव ।।२०३।। कहाँ पाप को कहा प्रमान ? पंचमिथ्यात्व दुःख की खान । कोध आदि षोड़श जु कषाय, पद अनायतन सदा धराय ॥२०४।। पाप वृक्ष फल कहिये माय ? दुखकारण दुर्गति ले जाय । रोग क्लश अधिक तह सहै, निद्य होय भवभव में बहै ॥२०५।। पापी लक्षण कैसो होय? तीव्र कषाय धरै नर जोय । पर निन्दा को करता रहै, पारत रौद्र ध्यान संग्रहै ॥२०॥ लोभी कौन सर्वदा कहे? धर्मबुद्धि जो दढ़ गहि रहे । निर्मल करे सबै प्राचार, कठिन जोग तप तन मन धार ॥२०७।। को विवेक है जग में श्रेष्ठ ? देह वस्तु जाने सु अनिष्ट । देव शास्त्र गुरु नमैं न और, जैनधर्म पाले शिरमौर ।।२०।। धर्मी को कहिये जगमाहि? क्षमा आदि पाले दाधाहि । जिनवर भाषित पाज्ञा लहै, ज्ञाना व्रती वद्धि संग्रहै ।।२०।। सवर कौन पंथ भव त्रले ? निर्मल पुण्य पाप दल मले । पूजा दान पवास ज घरं, व्रत अझ शील नाम जस करै ।।२१०।। सफल जन्म किहि को जगलोय ? उत्तम ज्ञान प्राप्ति ही होय । मुक्ति पुरी धैबां उर हेत, और न भवसुख चित्त घरेत ॥२१॥ मुखी कौन जग में परधान? जो उपाधि जित गुण मान । ज्ञान ध्यान अमृत को स्वाद, वनबासी तज के परमाद ॥२१२।। चिन्ता कौलौं यह जगमाहि ? जोली कर्म शत्रु क्षय नाहि । साधन मुक्ति लक्ष्मी सोय, और स्वर्ग सौं काज न तोय ।।२१३१॥ बड़ी पुरुष है को जगथान ? जाके सदा सुमोक्ष हि ध्यान । रत्नत्रय तब जोग जु लहै, ज्ञान संपदा सो निरव है ॥२१४॥
महाराज के मुख कमल से सोलहों स्वप्नों का फल सुनकर पतिव्रता महारानी का हृदय प्रफुल्लित हो उठा। उन्होंने समझा मानों पुत्र की प्राप्ति ही हो गयी । वे बड़ी प्रसन्न हुई। उसी समय सौधर्म इन्द्र का प्रादेश पाकर पद्म यादि सरोवरों में निवास करने वाली श्री आदि छ: देवियां राज-महल में आ गयीं। उन्होंने तीर्थंकर को उत्पत्ति के लिए स्वर्ग से लाई हई पवित्र वस्तुओं से माता के गर्भ का संशोधन किया, जिससे उन्हें पुण्य की प्राप्ति हो। पुनः वे अपने अपने शुभ गुणों को माता में स्थापित कर उनकी सेवा में संलग्न हो गयीं।
श्रीदेवी ने शोभा दी, ह्री देवी ने लज्जा, धृति देवी ने धैर्य कृति देवी ने स्तुति बुद्धि देवी ने श्रेष्ठ बुद्धि तथा लक्ष्मी देवी ने भाग्य प्रदान किये। वे जिन माता बड़ी गुणवती हई। यों तो महारानी पूर्व से ही स्वभाव से पवित्र थीं, पर जब देवियों ने वस्तुओं से उन्हें शुद्ध को तब तो वे मानों स्फटिक मणि से ही बनाई गयो प्रतीत होती हों, ऐसी शोभायमान हुई। इसके पश्चात अषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की शुद्ध तिथि षष्ठी को प्राषाढ़ नक्षत्र में और शुभ लग्न में बह अच्युतेन्द्र स्वर्ग से चयकर माता के शुद्ध गर्भ में पाया । महावीर प्रभु के गर्भ में आते ही स्वर्ग के कल्पवासी देवों के विमानों में घंटे की ध्वनि होने लगी और इन्द्र का पासन कांप उठा।