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विविध भोग भुगते जब जीव, दुःख प्राप्त हित होइ सदीव । तर न तृप्ति लही जो सोइ, कष्ट साध्य अव तिनको होइ ।।४।। नारी भोग मथन उत्पत्त, मान जाय अरु होत विपत्त । संपूरण सुख मुक्ति प्रधान, ताको इक्षं परम सुजान ।१४३।। यह चितत उपजी बैराग, मुतको दीनों राज्य सुहाग। छोड़ी लक्षमो अर्थ भंडार, गुरुके निकट गये सविचार ॥४४॥ मुनि के चरण कमल को नये, दुविध परिग्रह छोड़त भये। दीक्षा लही महाव्रत घरी, विश्वनन्दि मुनि तप आदरौ ।।४।।
दोहा रही कथा इस ठौर यह, नन्द गयौ शठ गेह । सकल बृतान्त पिता सुनी, तब उर चिन्त करेह ।।४६।।
चौपाई बडं पुरुष अपकीरति कर, ऊंचे कुलको नीची धरै। जे उपकारी नर परवीन, ते जगपूज्य पुरुष गुण लीन ।। ४७।। विशाखभूति वह चितन भयो, पश्चात्ताप निरुत्तर लयौ। वह प्रकार निन्दो संसार, तब संवेग ऊपज्यो सार ||४|| भव तन भोग लक्षमी आदि, दुविध परिग्रह कौनो प्रादि । मूनिके निकट गयो तिहि घरी, मन वच काय सु दीक्षा धरो ।।४।। पापरहित तप कीनो घोर, काल चिरंतन कर्मनि जोर। अपनी शक्ति परीषह सही, धर सन्यास मरण तब लही ॥५०।। ताके फल उपज्यो सो देव, महाशुक बस ऋद्धि समेव । देविन सहित जु कीड़ाकरं, धर्मवन्त मुख सौं व्योपरे ।। ५१॥ विश्वनंदि तपकर चिरकाल, विहरे देश याम जन जाग: पारट मारी हि सहार, गर्द क्षीण मुनि देह अपार ॥५२॥ पाए वनतें चर्या हेत, इर्यापथ शोधत पग देत। शांतचित्त थिर चित्त अविकार, पहुंचे मुनि मथुरापुर सार ॥५२॥ तिहि अवरार प्रायौ ता गाम, विशाखनंदि भूपति दुखधाम । पथ समीप वेश्यागृह एक, तह ठाडो शट रहित विवेक ।।४।। ता पथ पायौ श्री मुनिराय, मद मत्सर दोनों छुड़काय। गो प्रसूत मारी तह भृग, दुःखल मुनिके लाग्यो अंग ॥५५।। मुनि महान अति धीरज घरौं, सही परिषह ध्यान न डरौ। दुरव्यसनी वह नन्द विशाख, देख जती ऊपर रिस भाख ।।५। क्षीण पराक्रम मुनी शरीर, सहियो तिनको फेर अधीर । बौलो दुर्वच दायक पाप, दुख करता अर पातक पाप ।।५७।। शिला स्तम्भ इन कीनो भंग, इतनौ हतो पराक्रम अंग । पुरव दर्प कहां सो गयो, जानी जाय न कैसो भय ।।५।।
हो जाा है। यदि इसे अनेक भागोंसे भी तृप्ति नहीं मिली, तो भला इस क्षद्र भोगके लिए अपने भाईका वध करनेसे क्या लाभ? ये भोग मान-भंग करने वाले होते हैं । अत: स्वाभिमानी पुरुषको इनकी आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। ऐसा विचारकर विश्वनन्दीने उस वनको विशाखनन्दको दे दिया। उसे एक प्रकारसे वैराग्य हो गया था। वह सारी राज्यसम्पदाको त्यागकर श्री संभूत गुरुके समीप गया। वहांपर उसने मुनिके चरण-कमलों को नमस्कार कर समस्त परिग्रहोंका परित्याग किया एवं दीक्षा धारण कर ली। यहां विचारणीय है कि, किन्हीं स्थलोंपर नीच पुरुषों द्वारा किया गया अपकार भी सज्जनोंका महान उपकारी हो जाता है ।
कुछ समय के बाद विशाखभूति राजाको भी अपने दुष्कृत्योंपर महान पश्चात्ताप हुआ। वह सांसारिक भोगोंसे उदास हो गया। उसने भी मन, वचन, कायसे परिग्रहोंका परित्यागकर जिन-दीक्षा धारण कर ली। वह निष्पाप होकर कठोर तप करने में संलग्न हो गया । उसने अपनी शक्तिके अनुसार बहुत समय तक शुद्ध आचरण करते हुए, मृत्युके समय संन्यास धारण किया। जिसके परिणाम स्वरूप वह महाशुक नामके स्वर्ग में विशाखति नामक महान ऋद्धिका धारक देव हुआ।
विश्वनन्दी भी मुनि अवस्थामें अनेक ग्राम बनादिकों का भ्रमण करने लगे 1 पक्ष मास प्रादिके अनशनोंसे उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो चुका था। उनके प्रोठ-मह आदि अंग सूख गये थे। ऐसी अवस्थावाले मुनि विश्वनन्दीने एक दिन ईर्यापय दष्टिसे मथुरा नगर में प्रवेश किया। इसी समय वह विशाखनन्द भी बरे व्यसनोंके सेवनसे राज्य-भ्रष्ट हो किसीका दूत बनकर उसी नगरीमें आया उसका एक वेश्यासे सम्पर्क हो गया। एक दिन वह उसो वेश्याकी हवेली पर बैठा हया था। नीचेसे विश्वमन्दी मुनि जा रहे थे । एकाएक, एक बछड़े वाली गाय ने अपनी सींगसे उन्हें धक्का दे दिया, जिसमें वे जमीनपर गिर पड़े। उन्हें गिरते हुए देखकर विशाखनन्दी हंसने लगा। उसने बडे ही कठोर शब्दोंमें कहा-मुनि ! तेरा पुर्वका पराक्रम और बल कहां चला गया। ग्राज तो तू शक्तिहीन दुर्बल शरीरवाला मुर्देकी भांति दिखाई देता है।
उसने बड़े ही कठोर अह धक्का दे दिया, जिसमें आ था। नीचे से विश्व