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मौ हम देखत दुर्बल भये, शक्ति रहित हिरदे अब ठये । इहि विधि बहु दुरवच सुन सोइ, कोप्यो मुनि बहु प्रातुर होइ॥५६॥ रक्त वर्ण तब कीने अक्ष, दयावंत हिरदै परनन्छ । अरे दुष्ट ! मो संप माहत्त, हारण करो तुमने अासन्त ।।६०।। पाहे तं कीनौं है जाम, कटुक मूल ते कीनौं नास । यही तपस्याके परभाव, सब देखत हेदी तुझ काय ||६|| यही विधि मूनि बांधिनिदान, फिर निज भावनको उर पान । निदान बन्ध बुध निन्दत मोग, यात सतरुपन नहि जाग ।। ६२।। धर संन्यास करौ मन धीर, तपसौ. छोड़े प्राण शरीर। महाका कलप सूर ठयो, लपके फलसौ प्रापत भयो ।।६।। जहां विशासभूति मुनि देव, दोई झ्ये एक थानेव । षोडश सागर आयु प्रमान, मान देव बहुन जिहि आन ।।६।। दिव्य देह तसु दीप्ति अपार, सप्त धातु वजित अविकार। विमान बैठकर बन्दन कर, मेह आदि नन्दीश्वर परं॥६५॥ श्री जिनेश पूज मन लाइ, पंचकल्याणक रहि अति साइ । गिरि नद नदी सरोवर माहि, क्रीड़ा कर चित्त हरसहि ।।६।।
दोहा
सहजाम्बर भूषण सहित, ऋद्धि विऋयावन्त । पूर्व उपाजित पुण्यफल, शान्ति कान्ति शोभान ।। ६७|| विविध भोग ते भोगवे, दैविन सहित सुजान । सुखसागर के मध्य सुर, क्रीड़ा करत महान् ॥६॥
चौपाई जम्बूद्वीप भरत या खण्ड, देश सुरम्य वसै विन दण्ड । पौदनपुर नगरी शुभ बसै, तहको भृष प्रजापति लग ।।६।। रानी जयावती गुणरूप, विशाखभूति सुर चयौ अनूप । तिनके पुत्र ऊपज्यौ आय, विजयकुमार नाग सो पाय 11७०||
विशाखनन्दी के ऐसे वचन सुनकर मुनि को क्रोध हो पाया। उन्होंने लाल ने बकर अन्तरंग में ही कहा-रे दुष्ट ! मेरे तप के प्रभावसे तुझे अवश्य ही इस कदु हंसी का फल मिलेगा। यही नहीं तेरे, मूलका ही माश निश्चित है। इस प्रकार उसके विनाश करने रूप बुद्धिमानों द्वारा निन्दा किया गया, ऐसा निदान बंध करके मुनि ने समाधि मरण द्वारा प्राण त्याग किया। इस तपके प्रभाव से दसवं स्वर्ग में उसी स्थानपर वह देव हमा, जहाँ बिशाखभूति देव हुआ था। यहां उसे सोलह सागरकी आयु प्राप्त हुई। उन दोनों देवोंने उत्तम सप्त धातु रहित शरीरी को धारण किया। बे विमानों में बैठकर सुमेरु पर्वत तथा नन्दीश्वरादि द्वीपों में जिनेन्द्रदेव की भक्तिभाव से पूजा करते थे तथा भगवानके गर्भ कल्याणकमें भी जाते थे। अपने पूर्वाजित तपके प्रभाव से वे अपनी देवियोंके साथ सुख पूर्वक रहने लगे।
इसी जम्बू द्वीप के सुरम्य देश में पोदनपुर नाम का विशाल नगर है। वहाँ के प्रजा पालक राजा का नाम प्रजापति था। उसकी जयावती नाम की रानी थी। उन दोनों के घर विशाखभूति राजा का जीव स्वर्ग से चयकर विजय नाम का बलभद्र हृया और उसी राजा की मृगावती रानी के गर्भ से विश्वनन्दी का जीव त्रिपृष्ठ नाम का महा बलवान नारायण हया । वे दोनों भाई चन्द्रमा के वर्ण को भांति शुभ्र कान्ति वाले हए। वे शास्त्रज्ञ, अनेक कलाओं में निपुण न्याय मार्ग में लीन तथा भमिगोचरी एवं विद्याधर देबों कर पूजनीय हए । उनको अवस्था क्रम-क्रम से बढ़ने लगी। सूर्य और चन्द्रमा के सदश वे दोनों भाई प्रतिभाशाली हुए।
१. महामुनि विश्वनन्दी शान्तपरिणाम आयु समाप्त करके तप के प्रभाव से महाशक नाम के दसर्व वर्ग में देव हुए । विशाल भुनि भी नाम प्रसा मे उमी ग्वर्ग में देव हुए थे। यह दोनों आपस में प्रेम से स्वर्गों के महासुख भोगते थे।
२. स्वर्ग के महा मुख भोग कर विशाबभूति का जीव इसो भरत क्षेत्र में मुरम्य देश के पोदनपुर ननर के प्रजापति नाम के राजा की जयावती नाम की रानी रो विगप नाम का प्रथम बलभद्र हा और मैं विश्वत दी का जीव उसी राजा की मृगावती नाम की रानी मे त्रिपुष्ट नाम का पहला नारायण हुआ । हम दोनों बहे बलवान थे। पिछले जन्म के संस्कार के कारण हम दोनों का आपरा में बड़ा प्रेम था।
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