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१० यो. । २१६
२२।५।१८७।३२
२२।३-८।१८६
दृष्टि सं०३
| ६२३ यो, सिन्धु कुण्ड
गंगाकुण्डवत मागे सीतासीतोदा तक
उत्तरोत्तर दुगना प्रागे रक्तारक्तोदा तक
उत्तरोत्तर प्राधा ३२ विदेहों की नदियों के कुण्ड ६३ यो. विभंगा के कुण्ड
| १२० यो.
२२।३-१४॥१८६
१० यो.
१०।१३।१७६।२४ १०।१३।१७६।१०।
१० यो.
जन्म भूमियों का ज. विस्तार को. ५, उ. वि. को ४००, म. वि. को. १०-१५ । जन्म भूमियों की ऊंचाई अपने-अपने विस्तार को अपेक्षा पांच गुणी है। ये जन्मभूमियां सात, तीन, दो, एक और शंच कोन वाली हैं। ज. भू. की. ज. ऊंचाई को, २५, उ. ऊचाई २०००, म.उ. ५०-५५ ।
जन्म मिदों में एक, दो, तीन, पांच और सात द्वार-कोन और इतने ही दरवाजे होते हैं। इस प्रकार की व्यवस्था केवल श्रेणीबद्ध और प्रकीर्गक बिलों में ही है ।।
इन्द्रक बिनों में ये जन्म भूमियां लीन द्वार और तीन कोनों से युक्त हैं। उक्त सत्र ही जन्म भूमियाँ नित्य ही कस्तूरी से अनन्तगुणित काग्ने अधिकार से व्याप्त है ।
इस प्रकार जन्मभूमियों का वर्णन समाप्त हया।
नारको जीव पाप से नरक बिल में उत्पन्न होकर और एक मूहर्तमान काल में छह पर्याप्तियों को प्राप्त कर आकस्मिक मय से युक्त होता है।
पश्चात् वह नारकी जीव भय मे कांपता हुआ बड़े कष्ट से चलने के लिये प्रस्तुत होकर और छत्तीस आयुषों के मध्य में गिरकर वहां से उछलता है।
प्रयम पथ्वी में जीद सात उत्सेध योजन और छह हजार पाँच सौ धनुष प्रमाण उछलता है, इनके आगे शेष पदियों में उछलने का प्रमाण क्रम मे उत्तरोत्तर दूना-दुना है।
पो. ७, प. ६५०० ।
जिस प्रकार दुष्ट व्याघ्र मृग के बच्चे को देखकर उसके ऊपर टूट पड़ता है, उसी प्रकार कर पुराने नारको उस नवीन नारकी को देखकर धमकाते हुए उराकी और दौड़ते हैं।
जिस प्रकार कुत्तों के झंड एक-दूसरे को दारुण दुख देते हैं, उसी प्रकार भारकी नित्य ही परस्पर दुरसह पीड़ादिक किया करते हैं।
नारकी जीव चक्र, बाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करोंत, भाला, सुई, मुगल और सलवार इत्यादिक शस्त्रास्त्र, वन एवं पर्वत की आग तथा भेड़िया, व्याघ्र तरक्ष, शृगाल, कुत्ता, बिलाय और सिंह, इन पशुओं के अनुरूप परस्पर में सदैव अपने-अपने शरीर को विक्रिया किया करते हैं।
__ अन्य नारकी जीव गहरा बिल. घुओं, वायु अत्यन्त तथा तगा हुआ खप्पर, यंत्र, 'चूल्ला, कण्डनी (एक प्रकार का कूटने का उपकरण), चपकी औ वीं (नदी), इनके प्राकार रूप अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं ।
उपर्युक्त गारकी शूकर, दावानल तथा शोणित और कीड़ों से युक्त मरित, दह, कूप और वापी आदि का पश्चफ-पृथक रूप से रहित अपने-अपने शरीर को विक्रिया किस करते हैं । तात्पर्य यह कि नारकियों के अपृथक् विक्रिया होती है, देवों के समान उनके पृथक विक्रिया नहीं होती।
बजमय विकट मुख वाले ब्यान और सिंहादिक, पीछे को भागने वाले अन्य नारकी को कहीं पर भी क्रोध से या डालते हैं ।
कोई नारी जीव बिगस विलाप करते हुए हजारों यंत्रों (कोल्हुओं) से पेले जाते हैं । दूसरे नारकी जीय वहाँ पर हो जाते हैं, और इतर नारकी विविध प्रकारों से छेदे जाते हैं।
कोई नारकी परस्पर में एक-दूसरे के द्वारा बचतुल्य सांकलों से. यंमों से बांधे जाते हैं, और कोई अत्यन्त जाज्वल्यमान दुष्प्रथ्य अग्नि में फेंके जाते हैं।
कोई नारकी करोंत (आरी) के कांटों के मुखों से फाड़े जाते हैं, और इतर नारकी भयंकर और विचित्र भालों से वेधे जाते हैं। कितने ही नारकी जीन लोहे की कड़ाहियों में स्थित तपे हुए तेल मे फेंके जाते हैं, और कितने ही जलती हुई ज्वालानों से उत्कट अग्नि
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