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कूलनामा महीपालो दृष्टवा तं भक्तिभावितः । प्रियंगुकुसुमांगाभ: त्रिः परीत्य प्रदक्षिणं ||३१६।। प्रणम्य पादयोद्धर्ना निधि वा गहमागतं । प्रतीक्ष्यार्घादिभिः पूज्यस्थाने सुस्थाप्य सुश्रुतं ।।३२०।। गंधादिभिविभूष्यतत्पादोपातमहीतलं । परमान्नं विशुद्धध्यास्मै सोदितेष्टार्थसाधनं ।।३२१॥
-उत्तरपुराण अर्थात् प्रथानंतर पारणा के दिन वे भट्टारक महावीर स्वामी आहार के लिए निकले तथा स्वर्ग की नगरी के समान कुलग्राम नाम की नगरी में पहुँचे । प्रियंगु के फूल के समान (कुछ लालवी) कांति को धारण करने वाले उन भगवान को उस राजा ने पूज्य स्थान पर विराजमान कर अर्घादिक से उनकी पुजा की। उनके चरण कमल के समीपवर्ती पथिवी का भाग गंधा दिक से विभूषित किया और बड़ी विशुद्धि के साथ उन्हें अर्थ को सिद्ध करने वाला परमान्न समर्पण किया।
भगवान् पारणा करके पुनः वन में आकर ध्यानलीन और तपश्चरण रत हो गये । वहाँ पर निशंकरीति से रहकर उन्होंने अनेक योगों की प्रवृत्ति की और एकांत स्थान में विराजमान होकर बार बार दश तरह के धर्मध्यान का चितवन किया। उपरांत विचरते हुए वे उज्जयनी के निकट अवस्थित प्रतिमुक्तक नामक श्मशान में पहुंचे और वहाँ प्रतिमायोग धारण करके तिष्ठ गये । उसी समय एक रुद्र ने पाकर उन पर घोर उपसर्ग किया, किन्तु भगवान् जरा भी अपने ध्यान से चलविचल नहीं हए। हठात् रुद्र को लज्जित होना पड़ा और उसने भगवान की उचित रूप में संस्तुति की। सचमुच जो धीर वीर होते हैं वे इस प्रकार उपसर्ग आन पर उद्देश्य-पथ से विचलित नहीं होते हैं। कितनी हा बाधाएं आये, कितने संकट उपस्थित हो. घऔर कितने ही कण्टक मार्ग में बिछे हों, परन्तु धीर वीर मनीषी उनको सहर्ष सहन करके अपने इप्ट स्थान पर पहुंच जाते हैं। उन्हें कोई भी इष्ट पथ से विचलित नहीं कर सकता।
भगवान् महावीर परम धीर-वीर गंभीर महापुरुष थे। बास्तव में वे अनुपमेय थे। उन्होंने नियमित ढंग से बाल्यपने के नन्हें जीवन से संयम या अभ्यास किया था। क्रमानुसार उसमें उन्नति करते हुए वे उसका पूर्ण पालन करने के लिए परम दिगम्बर मुनि वेश म सुशोभित हुए थे और इस अवस्था में उन्होंने लगातार बारह वर्ष का ज्ञान ध्यानमय तपश्चरण किया था। इस तरह महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर के साधु जीवन व्यतीत हए थे। म. बुद्ध ने किसी नियमित साध सम्प्रदाय का ब्यवस्थित अभ्यास नहीं किया था और भगवान महावीर ने प्राचीन निम्रन्थ श्रमणों की क्रियाओं का पालन अपने गह त्याग के प्रथम दिन से ही किया था। अतएव इन दोनों युग प्रधान पुरुषों के साधु जीवन भी बिल्कुल विभिन्न थे।
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