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८-वह नहीं लेगा (भोजन जो उस बर्तन में से निकाला गया होगा) जिसमें वह रांधा गया हो.....
-यह स्थापित "या न्यस्त" दोष है। है-(वह भोजन) नहीं (लेगा) प्रांगन में से (कि शायद वह वहां खासकर उसके लिए ही रक्खा हो)। १०-(वह भोजन) नहीं (लेगा) जो लड़कियों के दरमियान रक्खा गया हो। 8-१०-प्रादुष्कर दोष हैं । ११-(वह भोजन नहीं लेगा) जो सिलवट के दरमियान रक्खा हो। ११-यहाँ “उन्मिश्र अशन दोष" का भाव है। १२-जब दो व्यक्ति साथ-साथ भोजन देते हैं तो वह नहीं लेगा.... केवल एक ही देगा। १२-यह अनीश्वर व्यक्ता-व्यक्त अनीशार्थ दोष का रूपान्तर है। १३–बह दूध पिलाती हुई स्त्री से भोजन नहीं लेगा.....! १४--वह पुरुष क स २०३० करती हुई स्त्री से भोजन नहीं लेगा। १३-१४--यह दायक अशन दोष के भेद हैं। १५-वह भोजन नहीं लेगा (जो अकाल के समय") एकत्रित किया गया हो। १५–यह अभिघट उगद् दोष दीखता है। १६- वह वहां भोजन स्वीकार नहीं करेगा जहां पास में कुत्ता खडा हो। १६-प्रथम पादातर जीव सम्पात या दंशक अन्तराय दोप है । श्वे० के यहां भी यह स्वीकृत है। १७-बह वहाँ भोजन नहीं लेगा जहाँ मक्खियों का ढेर लगा हो। १७–यहाँ पाणिजंतुबध अन्तराय का अभिप्राय है। १८-वह (भोजन में) मच्छो, मास, मद्य, पासव, सोरवा ग्रहण नहीं करेगा। १८-यह स्पष्ट है, यथा
खोरदहिस प्पितेल गुडलवणाणं च जं परिचणं । तित्तकटुकसायबिलमधुररसाणं च जं चयणं ।। १५५ ।। चसारि महावियडी य होंति णबणीद मज्जमांसमधू ।
कखापसंगदप्पा संजमकारीमो एदाभो ।। १५६ ।।--- मूलाचार १६-वह एक घर जाने वाला होता है...'एक ग्रास भोजन करने वाला होता है या वह दो घर जाने वाला होता है. दो ग्रास भोजन करने वाला है, या वह सात घर जाने वाला है-सात ग्रास तक करने वाला है। यह एक आहार निमित्त दो निमित्त या ऐसे ही सात तक जाने का नियमो होता है।
१९---यह वृत्तिपरिसंस्थान लिया है। २०. वह भोजन दिन में एक बार करता है, अथवा दो दिन में एक बार अथवा ऐसे ही सात दिन में एक यार करता है।
इस प्रकार वह नियमानुसार नियमित अन्तराल में अर्ध मास तक में भोजन ग्रहण करता रहता है। २१--यह सांकाक्षानशन नामक व्रत है।
इस क्रियायों के विशद विवेचन के लिए बीर वर्ष २ अंक २३ में जैन मुनियों का प्राचीन काल शीर्षक लेख देखना चाहिए।
इसके साथ ही ब्राह्मणों के शास्त्रों में भी जैन मुनियों का भेद नग्न बतलाया गया है । इन सत्र प्रमाणों को देखते हुए यही उचित मालम होता है कि जैन तीर्थकरों के निम्रन्थ मुनि का भेष नग्न ही बतलाया था। और जब उन्होंने इस तरह इसका प्रतिपादन किया था तो वह स्वयं भी नग्न भेष में अवश्य रहे थे यह प्रत्यक्ष है।
अतएव भगवान महावीर ने परम उपादेय दिगम्बरीय दीक्षा धारण करके ढाई दिन का उपवास (बेला) किया था। उसके उपरांत जब वह सर्व प्रथम मुनि अवस्था में प्राहार निमित्त निकले तो कूलनगर के कूलनृप ने उनको पड़गाह कर भक्तिपूर्वक आहार दान दिया था। यही बात श्री गुणभद्राचार्य जी निम्न श्लोकों द्वारा प्रकट करते है :
अथ भट्टारकोप्यस्मादगात्कायस्थिति प्रति। कुलग्रामपुरीं श्रीमत् व्योमगामिपुरोपमं ।।३१८||
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