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फल मोक्ष है, अतएव मोक्षरूपी महानिधि को प्राप्त करने वाली यह देववन्दना अर्थात् जिनदर्शन पूजनादि प्रत्येक धर्मच्छ पुरुष को अपने कल्याण के निमित्त योग्यतानुसार नित्य करना चाहिये। तथा शक्ति एवं योग्यता के अनुसार पूजन की सामग्री एक द्रव्य अथवा प्रष्ट द्रव्य नित्य अपने घर से ले जाना चाहिये।
जो जिनेन्द्र पूजे फूलन सौं, सुर नैनन पूजा तिस होय,
बंद भावसहित जो जिनवर, बंजनीक त्रिभुवन में सोय । किसी किसी ग्रन्थ में प्रातः, मध्यान्ह और संध्या तीनों काल देव वंदना कही है सो सन्ध्याबन्दन से कोई रात्रि पूजन न समझ लें, क्योंकि रात्रि पूजन का निषेध धर्म संग्रह बावकाचार वसुनन्दिधावकाचारादि ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से किया है तथा प्रत्यक्ष हिंसा का कारण भी है इसलिये सन्ध्या के पूर्वकाल में यथाशक्ति पूजन करना ही सन्ध्यावंदन है । रात्रि को पूजन का बारम्भ करना अयोग्य और अहिंसामयी जिनधर्म के सर्वथा विरुद्ध है अतएव रात्रि को केवल दर्शन करना ही योग्य है।
७. जीत दया-सदा सव प्राणी अपने अपने प्राणों की रक्षा चाहते हैं । जिस प्रकार अपना प्राण अपने को प्रिय है उसी प्रकार किन्द्रीय से लेकर वन्द्रिमा पस्त सभी प्राणियों को अपने-अपने प्राण प्रिय हैं। जिस प्रकार अपना जरासा भी कष्ट नहीं सह सकते, उसी प्रकार वृक्ष, लट, कोड़ी, मकोड़ो, मक्खी, पशु, पक्षी, मनुष्यादि कोई भी प्राणी दुःख भोगने की इच्छा नहीं करते और न सह सकते हैं। अतएव सब जीवों को अपने समान जानकर उनको जरा भी दुःस्व कभी मत दो, कष्ट मत पहंचायो सदा उन पर दया करो । जो पुरुष दयावान हैं, उनके पवित्र हृदय में धर्म की क्षति कदापि नहीं हो सकती ऐसा जान कर ही पवित्र धर्म ठहर सकता है, निर्दयी पुरुष धर्म के पास नहीं उनके हृदय में धर्म सदा सर्व जीवों पर दया न करना योग्य है। दया पालक के झूठ चोरा, कुशालादि पच पापा का त्याग सहज ही हो जाता है।
८. अलगालन-प्रगट रहे कि अनछने जल की एक बूंद में असंख्यात छोटे छोटे त्रस जीव होते हैं । अतएव जीव' दया के पालन तथा अपनी शारोरिक आरोग्यता के निमित्त जल को दोहरे छन्ने से छानकर पीना यगेय है। छन्ने का कपड़ा स्वच्छ सफेद साफ और गाढ़ा हो । खुरदरा, छेददार, पतला पुराना, मैला फटा तथा प्रोढ़ा पहिना कपड़ा छन्ने के योग्य नहीं। पानी छानते समय छन्ने में गुड़ी न रहे । छन्ने का प्रमाण सामान्य रीति ये शास्त्रों में ३६ अंगुल लम्बा और २४ अंगल चौड़ा है, तथा बर्तन के मुंह से तिगुना दुहरा छन्ना होना चाहिए। छन्ने में रहे हुए जीव' अर्थात जीवाणी (बिलछानी) रक्षापूर्वक उसी जलस्थान में क्षेपे, जिसका पानी भरा हो । तालाब, बावणी, नदो यादि जिसमें पानी भरने वाला जल तक पहुंच जाता है जीवाणी डालना सहज है, कुएं में जीवाणी बहुधा ऊपर से डाल दी जातो है सो या तो वह कुएँ में दोवालों पर गिर जाती है अथवा कदाचित पानी तक भी पहुंच जाय तो उसमें के जीव इतने ऊपर ने गिरने के कारण मर जाते हैं, जिसमे जोवाणी डालने का अभिप्राय अहिंसा धर्म नही पलता । अतएव भंवर कड़ीदार लोटे से कुएं के जल में जीवाणी पहुंचाना योग्य है।
पानी छानकर पीने से जीवदया पलने के शिवाय शरीर भी निरोगी रहता है । वद्य तथा डाक्टरों का भी यही मत है । अनछना पानी पीने से बहुधा मलेरिया ज्वर, नहरुमा प्रादि दुष्ट रोगों की उत्पत्ति होती है । इन उपर्य क्त हानि-लाभों को विचार कर हरएक बुद्धिमान पुरुष का कर्तव्य है कि शास्त्रोक्त रीति से जल छानकर पीवे । उसको मर्यादा दो घड़ी अर्थात ४५ मिनट तक होती है। इसके बाद अस जीव उत्पन्न हो जाने से वह जल फिर अनछने के समान हो जाता है।
इन प्रष्ट मूल गुणों में देव दर्शन, जलछानन और रात्रि भोजन त्याग ये ३ गुण तो ऐसे हैं जिनसे हर एक सज्जन पुरुष जैनियों के दयाधर्म की तथा धर्मात्मापने की पहिचान कर सकता है । अतएव प्रात्महितेच्छु-धर्मात्मानों को चाहिए कि जीवमात्र पर दया करते हुए प्रमाणिकता पूर्वक बर्ताव करके पवित्र धर्म की सर्व जीवों में प्रवृत्ति करें।
सप्त व्यसन दोष वर्णन जहाँ अन्याय रूप कार्य को बार-बार सेवन किये बिना चैन नहीं पड़े, ऐसा शौक पड़ जाना व्यसन कहलाता है अथवा व्यसन नाम आपत्ति (बड़े कष्ट) का है इसलिए जो महान दुःख को उत्पन्न करे, अति विकलता उपजावे तो व्यसन हैं (मलाचार)