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पुनः जिसके होने पर उचित अनुचित के विचार से रहित प्रवृत्ति हो (स्वाद्वादमजरी) वह व्यसन कहलाता है।
स्पष्ट' रहे कि जुआ खेलना, मांसभक्षण करना, मद्यपान करना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना, पर स्त्री सेवन, ये सात ऐसे प्रति अन्याय रूप और लुभावने कार्य हैं कि एक बार सेवन करने से इन में प्रति यासक्तता हो जाती है जिससे इनके सेवन किये बिना चैन नहीं पड़ती रात दिन इन्हीं में चित्त रहता है। इनमें उलझना तो सहज पर सुलझना महा कठिन है, इसी कारण इनकी शास्त्रों में व्यसन संज्ञा है यद्यपि चोरी पर स्त्री को, पंच पापों में भी कहा है, तथापि जहाँ इन पापों के करने की ऐसी टेव' पड़ जाय कि राजदण्ड लोकनिन्दा होने पर भी न छोड़े जावें तो व्यसन है और जहाँ कोई कारण विशेष से किंचित लोकनिंद्य वा गृहस्थ धर्म विरुद्ध से कार्य बन जाय सो पाप है।
__यद्यपि इन व्यसनों का नियमपूर्वक त्याग सम्यक्त्व होने पर पाक्षिक अवस्था में होता है, तथापि ये इतने सारे कारक ग्लानि रूप और दुखदाई हैं कि इन्हें उच्चजातीय सामान्य गृहस्थ भी कभी सेवन नहीं करते, इनमें लवलीन मासा पुरुषों को सम्यक्त्व होना तो दूर रहे किन्तु धर्म रुचि, धर्म की निकटता भी होना दुस्साध्य है । ये सप्त व्यसन वर्तमान में नष्ट भ्रष्ट करने वाले और अन्त में सप्त नरकों में ले जाने वाले दूत हैं। इनका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है।
१. जुना खेलना-जिसमें हार जीत हो, ऐसे चौपड़ गंजफ़ा मूठ, नक्की आदि खेलना सो जुमा है । यह जुमा सप्त व्यसनों का मूल सर्व पापों का स्थान है। जिनके धन की अधिक तृष्णा है वे जुमा खेलते हैं। जुमारी नीच जाति के साथ भी राज्य के भय से छिपकर मलिन प्रौर शून्य स्थानों में जुआ खेलते हैं अपने विश्वासपात्र मित्र भाई आदि से भी कपट करते हैं। हार जीत दोनों दशाओं में (चाहे धन सम्बन्धी हो चाहे बिना धन सम्बन्धी) अति व्याकुल परिणाम रहते है। रात दिन इसकी मर्छा रहती है। ऐसे लोगों से न्याय पूर्वक अन्य कोई रोजगार धंधा हो नहीं सकता । जीतने पर मद्यपान मांसभक्षण, बेश्यान नादि निंद्य कर्म करते और हारने पर चोरी छल झठ प्रादि का प्रयोग करते हैं। जुना खेलने बालों से कोई दुष्कर्म बचा नहीं रहता। इसी कारण जुए को सप्त व्यसन का राजा कहा है । सट्टे (फटाके) का धंधा, होड़ लगाकर चौपड़ शतरंज प्रादि खेलना यह सब जुपा ही का परिवार है जुभारी पुत्र पुत्री, स्त्री हाट महल, दुकान आदि पदार्यों को जुए पर लगाकर घड़ी भर में दरिद्री नष्ट भ्रष्ट बन बैठता है । इसके खेलमात्र से पांडवों ने जो दुख उठाया सो जगत प्रसिद्ध है।
२. मांस ३ मद्य–इनका वर्णन ३ मकार में हो चुका है । मांस भक्षण से बकराजा और मादक जलमात्र पीने से यादव अति दुःखी और नष्ट भ्रष्ट हुए।
४. वेश्या सेवन-जिस अविवेकिनो ने पैसे के प्रति लालच से वेश्यत्ति अंगीकार कर अपने शरीर को अपनी इज्जत प्राबरू को, अपने पतिव्रत धर्म को नीच लोगों के हाथ बेच दिया ऐसो बेश्या का सेवन महानिंद्य है। यह पैसे की स्त्री, इसके पतियों की गितनी नहीं, रोगी घर, सब दुर्ग णों की रानी है। मांस मदिरा जुमा प्रादि सब प्रकार के दुर्व्यसनों में फसा कर अपने भक्तों को कष्ट आपदा रोगों का घर बनाकर अन्त में निर्धन दरिद्री अवस्था में मरण प्राय करके छोड़ती है । इसके सेवन करने वाले महानीच, घिनावने स्पर्श करने योग्य नहीं। जिनको देश्या सेवान की ऐसी लत पड़ जाती है कि वे जाति पाँति धर्मकर्म की बात तो दूर ही रहे किन्तु मरण भी स्वीकार कर लेते, परन्तु व्यसन को छोड़ना स्वीकार नहीं कर सकते । जो लोग अज्ञानतावश वेश्याव्यसन में फंस जाते हैं, उनकी गृहस्थी, धन, इज्जत, आबरू, धर्म कर्म सब नष्ट हो जाते हैं और वे परलोक में कुगति को प्राप्त होते हैं । इस व्यसन से चारुदत्त सेठ अति विपत्तिग्रस्त हुए थे, यह कथा पुराण प्रसिद्ध है।
५. शिकार बेचारे निरपराधी, भयभीत, जंगलवासी पशु पक्षियों को अपना शौक पूरा करने के लिये या कौतुक निमित्त मारना महा अन्याय और निर्दयता है। गरीब, दोन, अनाथ की रक्षा को करना बलवानों का कर्तव्य है । जो प्रजा की निस्सहाय जीवों की घात से, कष्ट से रक्षा करे, सो ही सच्चा राजा तथा क्षत्रिय है। यदि रक्षक की भक्षक हो जाय तो दीन अनाथ जीव किस से फरियाद करें। ऐसा जानकर बलवानों को अपने बल का प्रयोग ऐसे निध, निर्दय और दृष्ट कार्यो में करना सर्वथा
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