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चौपाई शुक्ररुधिर पर मांस जु नाम, अस्थि राहित मल मूत्र कूधाम । सप्त धातु को पुतरा सोइ, अशुचिवत बुध भजन कोइ।।१०१॥ क्षुषा तृषा बहु जराजु रोग, अगिनि समान ज्वलित संयोग । ऐसी काय कुटी में वास, ज्ञानवंत तहं होय उदास ।।१०।। रागद्वेष अरु सकल कषाय, मोह मरोर वहै महकाय । ज्ञानी पुरुष कहो क्यों रमै, पापी देह यही जग वमै ॥१०३।। भरी स्वेदसों बहुत विकार, नेक सुगंध लगै नहि सार । चर्महि माहि रूप है सोय, तासौं रम्य कहै बुद्ध कोय ।।१०४॥
नहि कर, रोग लहै दुर्गति संचरं । तप करि शोषत ज्ञानी जीव, स्वर्ग सुख्य लहि मुक्तिजु पीव ॥१०॥ कर्म आदि मल बपु अपवित्र, संपूरन दुख करहि जगत्र । तपरूपी जलकर अस्नान, प्रात्म पवित्र कर बुधवान ।।१०६।।
इति अशुचित्वानुप्रेक्षा
रागादिक पुदगल सुख देइ, कमरूप प्रास्रव दुख लेइ । ज्यों सछिद्र नौका जल भरे, बूद बारिधि नहिं ऊबरं ॥१०७।। ऐसा लहि कर्मानव जीव, भवसागर में हलै सदीब । पंच मिथ्यात्व दुःख की खान, अर बाहर अविरतिहि बखान ||१०|| पनि कहियं पच्चीस कपाय, पन्द्रह जोग दुर्धर समुदाय । इतने कमसिव बंधाय, भ्रमहि चतूर गति में दूख पाय ॥१०६।। कर्मास्रब नौका के छिद्र, रूधै ताहि क्षमादि समुद्र । तप कर पूरब कर्म खिराय, मुक्ति रमणि को सो परणाय ।।११।। जे सत जन कर्मानब एक, ध्यान धयन संजय के थोक । तिनि पुगतन को मां सजा का प्रामाद्धि ॥१११॥ जौलौं कर्मास्रव को जोग, चंचल पातम विषयन भोग । जावत मोक्ष न पाये जीव, भवसागर को लहै न सीव ।।११।। ज्ञानवंत कर जतन प्रमान, रूधि अशुभ यात्रष के थान । रलत्रय आदिक शुभ ध्यान, प्राप्ति चिदातभ को सुख खान ।।११३॥ विकलप रहित ध्यान सरदहै, शुभ आस्रव को प्रावल जहै। कर्म शत्रु को घातहि तथै, मुक्ति पाय सूख भुजै जबै ॥११४||
इति पासवानुप्रेक्षा धीरवंत संवर अनुसर, कास्रव को रोध जु करें । व्रत अरु समिति गुप्तित्रय थोक, तेरह विधि चारित्रहि लोक ||११|| दश विध धर्म जगत विख्यात, अनुप्रेक्षा द्वावश चितात। वाइस परीषह जीतहि सोय, सामायिक प्रादिक सव जोय ||११६।। धर्म शुक्ल ध्यान हि अभ्यास, मन निरोध कर्मास्रव नाश । सो संवर शिवदायक मुक्ख, जतन राख धीरज तज दुःख ॥११७ कर्महि संवर करहि सुजान, निजैर तप कर उक्त महान । क्लेश सहैं दुख कठिन निधान, निर्मल मुक्ति सुख्य बहुमान ।।११।।
इति संवरानुप्रेक्षा
पूरब सकल अवस्था कहीं, संवर कर तपसा निज सही । सो निर्जरहि कर्म जड़ जान, योगीश्वर शिव को सुखदान ॥११॥ कर्म उदय को भोगहि सोइ, आत्म स्वभाव खिराव जोइ। ऐसे कर्म शिथिल कर रहै, सो सविपाक निर्जरा यह ॥१२०॥ उग्र उस तप साधे जब, श्री मनीश कर्मन हनि सवै । मुक्ति श्री वांछ वर सोय, निर्जर है अविपाकी जोय ॥१२॥ जब पूरन निर्जर संचरै, संपूरन कर्मन क्षय करै । तपहि साधि योगीश्वर बीर, मुक्ति अंगना संगम धीर ॥१२२।।
अभिषेक किये हुए भगवान के सर्वाङ्गको इन्द्राणी ने उज्वल कपड़े से पोंछा । इसके बाद उन्होंने भक्ति पूर्वक सुगन्धित द्रव्यों से उनका लेपन किया। यद्यपि वे प्रभु तीनों जगत के तिलक थे, फिर भी भक्तिवश उन्होंने उनके मस्तक पर तिलक लगाया। जगत के चुणामणि भगवान के मस्तक में चूणामणि रत्न बांधा गया। यद्यपि भगवान के नेत्र स्वभाव रोही काले थे, फिर भी व्यवहार दिखाने के लिये उन्हें इन्द्राणी ने अंजन लगाया।
भगवान के कानों में इंद्राणी ने रत्नों के कुण्डल पहनाये। प्रभु के कण्ठ में रत्नों का हार, वाहों में बाजूबन्द, हाथों के पहुंचों में कड़े और अंगुलियों में अंगूठी पहनाई। कमर में छोटी घटियों बाली मणियों की करधनी पहनाई, जिसके तेज से सारी दिशायें व्याप्त हो
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