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चारह गतिकी प्रायु विचारी, उतकिठ जघन जू भेदा । तिनके समय समय प्रति धारे, गति गति पूरन खेदा ।। नारक देव मनुष पशु के सब भ्रमण चतुरगति न्यारे। मिथ्यामतिघर लख चौरासी, जो नहि भव संसारै ।।१०।।
(भव परिवर्तन) मिथ्यादिक संतावन बन्धन, अशुभ प्रणामन साध। सो वस कर्म प्रकृति पड़तालिस, चारों बन्धन बांधे ।। प्रातम भाव भये नहि कबहूं, जाते कारण होई। भव संसार ज इहि दिधि लहिजे, जीव अनादि जु सोई ।।११||
(भाव परिवर्तन) विषयन में जड़ सुखकर माने, वे दुख अधिक जु लीनं । ज्यौं घृत तेल प्रगनि सन कीज, अगनि प्रचंडित कीनै । प्राणी-जीव भ्रमत चिरकालहि, अन्त न पायौ केहू । रत्नत्रय आदिक व्रत धरिक, भव जिय पार लहेह ॥१२॥
और अठारह नाते जिय प्रय, भव भव है विख्याता । वायहूं पिता-पुत्र हो कवहूं, कबहूं त्रियकी माता ।। धर्म बिना प्राणी बहु भ्रमियी, काल अनादि अजाना । धर्म सहित सख दुखदि दूर कर, जन्तु ल है निरवाना 11६३।।
इति संसारानुप्रेक्षा जनम होय एकाकी जग में, मृत्युक एकहि सोई। एकत में जग केवल मैं तह, एक हि सूखमय होई।। एकहि रोग ग्रस्यौ बहु व्याधनि, एक वेदन भारी । एकहि देख परत नैनन सौं, एकहु अन्ध अंधारी ।।१४।। यम अरु नियम व्रतहि गहि एकहू, सुरगति सुख्य उपाई । एकाकी तप साधि शिरोमणि, मुक्तिपुरी को जाई ।। एक पाप कर सो भंज, दुर्गति दुःख लहानो । सावद हिंसा निद्य आदि कर, नरकहि देय पयानी || माता पिता ग्रह पुत्र कलित्र हि, स्वजन सकल नहि सातौ । एक चिदातम को मन ध्यावं, तिनह गूनको नाती। तात प्रष्ट करम शनि को, रत्नत्रय असि हतौ । मुक्ति सरूपी सुन्दर जग है, भगत सूख्य अनंतौ ॥१६||
इति एकत्वानुप्रेक्षा अन्य जु मातम पुद्गल अन्य जु, जन्म मृत्यु कहं सोई । कर्म-संजोग मुख्य दुख भुगतो, प्रती काल जहं होई ।। अन्य हि माता-पिता परि बांधव, त्रिया पुत्र सब अन्या। हाट प्रस्ताव सर्व जुर आये, काज सरै नर मन्या ॥७॥ सहजाहि वपू पर मातम जानौ, पृथक पृथक कर पेस्रो । साक्षत मृत्यादिक समयहि लखि, आपुन गहि नहि लेखौ। जब पुद्गल को जीव' त्याग कर, अन्तहि थितिकी की। मन वच कर्म संग ही चाल, फेर न बपुको छीवै ॥९॥ कर्म कार्ज करदैलौं साथी, सुख दुख गति परनावै । जबहि कर्मरस भोग कर निज, मातम ज्ञाम बिताये। इन्द्रिय सकल पदारथतत्वनि प्रातम ज्ञानहि जान 1 पुदगल भिन्न जुदी जड़तामय, एकहि क्यों कर मान रहा इहि अंतर बहु साध पृथक कर, ज्ञान गुणहि पहिचान । वपु ये काय कळू नहि जाने, कर्म शुभशुभ ठाने ।। मातम ध्यान करें योगीश्वर, काय हतनके काजै । रह्य चिदानन्द' सुख्य अनंत, मूक्ति पुरी में राज ॥१०॥
इति अन्यत्वानुप्रेक्षा
के साथ पजा की गयी । इस प्रकार इन्द्रने बड़ी भक्ति के साथ भगवान की प्रार्थना करते हुए अभिषेक उत्सव सम्पन्न किया । पन: इन्द्रने इन्द्राणी और अन्य देवों के साथ भगवान को नमस्कार किया।
उस समय का प्राकृतिक दृश्य बड़ा ही मनोरम हो गया था। ग्राकाश से सुगन्धित जलके साथ पष्पों की वर्षा होने लगी। देवोंने मन्द सुगन्ध और ठण्डी वायु चलाई । वस्तुत: जिस प्रभु के जन्माभिषेक का सिंहासन सुमेरु पर्वत है, और स्नान कराने वाला इन्द्र है, मेघ के समान दूध से भरे हुए कलश हैं, सब देवियां नृत्य करने वाली हैं, स्नान के लिये क्षीर समता है और जिस जगह देव सेवक हैं, भला ऐसे जम्माभिषेक की महिमा का कोई कैसे वर्णन कर सकता है अर्थात कोई नहीं कर सकता।
लगी । देषोंने मन्द सुगन्मान दूध से भरे हुए कलश है, सब
वर्णन कर सकता है अर्थात कोई नहीं