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ताहि मनन्त गुजन को चहे पद तीर्थंकर गणधर नहे ||१२||
र जगत पूज्य जगमाहि भवनाशन भयनि सुखदाहि ॥ १२४॥ भवसागर उद्वरं जु सोय, शिव प्रापति के कारण होय ।। १२५ ॥ इति निरानुप्रेक्षा ।
विवपूर्ण सुख करता सोय, मुक्ति रमा बांक है जो सकल भोग त्यागे जे सुधी, कर्म नाथ दांते बुधो इहि प्रकार निर्जर को ध्याय, जीत परीषह घोर महाय
भोजन को खोय ||१२|
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सब उर नंता प्रकाश, तानें लोक खते व जास (अ) नावि शापवतो बहू गुण भरी, हरिहर सादि न काहूक री ॥ १२६॥ अधोलोक मोटी धान, मध्य लोक भत्सरी समान ऊरथ लोक मुदंगाकार, तीन लोक सब पुरुषाकार ||१२७।। चौखंटी । चौदह राजू सर्व उतंग वातवलय बेडी सरचंद प्रथमहि तनु वाताहिको नाम, बीस सहस जोजन आयाम ।।१२।। जो वलय धन कधी बोस राय जोजन को लह्यो। विती घनोदचि मोठी सोय बोस सहस मूलहितें इकराजू तंग, सात सात चारों दिश संग तामें पंच गोल के जेह, तिनके भेद कहाँ कछु येह || १३०८1 प्रथमहि खंदर नामहि भेव, जम्बूद्वीप समान गनेव । दुजी अंडर नाम बढ़ान, भरतक्षेत्र वत है उनमान ॥१३१॥ arat sोषक नाम यचास, कोशल देश समान सुवास चीयो पुलवि नाम है कही नम्र अयोध्या वत है कही ।। १३२ ।। पंचम देह नाम लहि सोय चक्रवति मंदिर वत होय । सब में नित्य निगोदहि जीव, उपजे मरि मरि रहे सदी ।। १३३॥ तत्र नाड़ी तेरह राजू ऊंची लेव । ताके मधि क राजु विचार, तामें त्रस उपजं संसार ।। १३४|| छैराजू ग्ररु । राज में नरक जु शात पर तिहि अन्त भवन दवा जात सब ही पूरव पर विस्तार,
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राजू इक इक हीन विचार ।।१३५|| दक्षिण उत्तर सब ही समय सुन पृथक पृथक सब भांत धम्मा पहिलहि तेरह पटल रत्नप्रभा बी भूपटल ॥ १२६॥ जिसे वहां हैं लाख ज दोस, उपजे तह नारक दुत दीस। दूजी वंश नरक हि नाम, पृथिवी प्रभा शर्करा ठाम ॥१३७॥ ग्यारह पटल यहां दुख खान, विल पच्चीस लाख उन्मान | मेघा तृतीय नरक पहिचान, बालू वत भाभा सब थान || १३८॥ बिजु पन्द्रह लाख प्रधान, नव पलटन में दुःख महान चौथों अंजन नरक खान, पंक प्रभा दो बहु प्लान ।। १३६ ।। पटल सात है ताके लीय, विले लाख दश उपजे जीय पंचम श्रारिष्टा दुख धाम, घूम वर्ण दीसे अभिराम ।। १४० ।। पटल पंच पुनि ताके कहै, विले जु तीन लाख सरदहै। छठम मघवी नारक जेह, अन्धकारसम पृथिवी तेह || १४१ ।। पटल तीन तार्क सुख नून, विलै जु एक लाख पंचून सातम नरक माधवी नाम, महा जु अंधकार दुख धाम पटल एक है दुख की खान, पंच विले जिय उपज प्रमान सातम तें पहले लौं होय, पंक बहुल जल पृथ्वी सोय सुर कुमार प्रथम भवनेव, चौसठ लाख विमान गनेव तितने ही जिन मंदिर से अष्टोत्तर प्रतिमा जो वर्त ।। १४४ ।। खर पृथ्वो में नव भवनान, नागकुमार दुतिम है थान 1 (वि)मान लाख चौरासी जहां, जिन मंदिर इक इक है तहां ॥१४५॥
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गर्मी प्रभु के पैरों में मणिमय गोमुखी कड़े पहनाये गये इस प्रकार असाधारण दिव्य मंडनों गहनों से कांति एवं स्वाभाविक गुणों से वे प्रभु ऐसे प्रतीत होने लगे, मानो लक्ष्मी के पुंज ही हों ।
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भगवान का दिव्य शरीर ग्राभूषणों से और भी शोभायमान हो गया बाभूषणों से सजे हुए इन्द्र की गोद में विराजमान महावीर प्रभु को देखकर इन्द्राणी को बड़ा आश्चर्य हुआ। इन्द्र को भी कम सच नहीं हुया एक नेत्र से देखने से जब इंद्र की तृप्ति नहीं हुई, तब उन्होंने हजार ने कर लिये अन्य देव-देवियां भी भगवान की रूप-सुधाका पान कर अत्यन्त हर्षित हुई।
पश्चात् सौधर्म इन्द्रप्रभु की स्तुति करने के लिए प्रस्तुत हुए थे तीर्थंकर के पुण्योदय से उत्पन्न उनके गुणों की प्रशंसा करने लगे । उन्होंने कहा- देव! बिना स्नान के ही आपका सर्वाङ्ग पवित्र है, पर मैंने अपने पापों की शांति के लिये श्राज भक्ति पूर्वक आपको स्नान कराया है। आप तीनों जगत के आभूषण हैं, पर मैंने अपने सुखों की प्राप्ति के लिये आपको आभूषणों से विभूषित किया है। प्रभो तुम्हारी महान सत्ता बाज सारे संसार पर अपना प्रभाव विस्तार कर रही है।
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