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मान्ध्र और चालुक्य काल में दिगम्बर मुनि आन्ध्रवंशी राजांगों ने जैन धर्म को आश्रय दिया था, यह पहले लिखा जा चुका है । चोल' और चालुक्य अभ्युदय काल में दिगम्बर धर्म प्रचलित रहा था। चालुक्य राजाओं में पुलकेशी द्वितीय, विनयादित्य, विक्रमादित्य आदि ने दिगम्बर विद्वानों का सम्मान किया था। विक्रमादित्य के समय में विजय पंडित नामक दिगम्बर जैन विद्वान एक प्रतिभाशाली वादी थे। इस राजा ने एक जैन मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था।' चालुक्यराज गोबिन्द तृतीय ने दिगम्बर मुनि अर्कक्रीति का सम्मान किया और दान दिया था। बह मुनि ज्योतिष विद्या में निपण थे। गिराज चौलुक्य विजयादित्य ६म के रूप दिगंवराचार्य पहननन्दि थे । इन प्राचार्य की शिप्या चागेकाम्बा के कहने पर राजा ने दान दिया था। सारांश यह कि चालूक्य राज्य में दिगम्बर मुनियों और विद्वानों ने मिरापद हो धर्मोद्योत किया था।
राष्ट्रकट काल में दिगम्बर मुनि राष्ट्रकट अथवा राठौर राजबंश जैन धर्म का महान् आश्रयदाता था। इस वंश के कई राजारों ने प्रणवतों और महाव्रतों को धारण किया था, जिसके कारण जैन धर्म को विशेष प्रभावना हुई थी। राष्ट्रकूट राज्य में अनेकानेक दिग्गज विद्वान दिगंबर मुनि विहार और धर्मप्रचार करते थे। उनके रचे हुए अनूठे सन्थ रत्न प्राज उपलब्ध हैं। श्री जिमसेनाचार्य का "हरिवंशपुराण', श्री गुणभद्राचार्य का "उत्तर पुराण", श्री महावीराचार्य का 'गणिससार संग्रह" प्रादि ग्रन्थ राष्ट्रकट राजारों के समय की रचनायें हैं। इन राजामों में प्रमोघवर्ष प्रथम एक प्रसिद्ध राजा था। उसकी प्रशंसा अरब के लेखकों ने को है और उसे संसार के श्रेष्ठ राजामों में गिना है । वह दिगंबर जैनाचार्यों का परम भक्त था।
सम्राट् प्रमोघ बर्ष दिगम्बर मुनि थे उसने स्वयं राज-पाट त्याग कर दिगंबर मनि का व्रत स्वीकार किया था। उसका रचा हआ रत्नमालिका एक प्रसिद्ध सभाषित ग्रन्थ है। उसके गुरु दिगम्बराचार्य श्री जिनसेन थे, जैसे कि "उत्तर पुराण' के निम्न श्लोक में मशगया वे श्री जिनसेन के चरणों में नतमस्तक होते थे:
"यस्य प्रांशु नखांशुजाल बिसरद्धारान्तराविर्भवत्पादाम्भोजराज; पिशंगमुकूट प्रत्यग्ररत्नतिः । संस्मर्ता स्वममोघवर्षनगतिः पूतोऽहमद्येत्यलं
स थीमाज्जिनसेन पूज्यभगवत्पातो जगन्मंगलम् ।।" अर्थात-"जिन थी जिनसेन के देदीप्यमान नखों के किरण समूह से फैलती हुई धारा बहती थी और उसके भीतर जो उनके चरणकमल की शोभा को धारण करते थे इनकी रज से जब राजा अमोघवर्ष के मकूट के ऊपर लगे सारी कांति पीली पड़ जाती थी तब वह राजा अमोघवर्ष अापको पवित्र मानता था श्रीर अपनी उसी अवस्था का सदा स्मरण किया करता था, ऐसे थीमान् पूज्यपाद भगवान् श्री जिनसेनाचार्य सदा संसार का मंगल करें।"
अमोघवर्ष के राज्य काल में एकान्तपक्ष का नाश होकर स्थाद्वाद मत को विशेष उन्नति हुई थी। इसलिए दिगम्बरा चार्य श्री महावीर "गणितसार सग्रह" में उनके राज्य की वृद्धि की भावना करते हैं। किन्तु इन राजा के बाद
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- - -- - १. SS]J., pt.1 P. 111 २. ADIB, p, 97 व विको० , भा०५ पृ. ७६ ३. ADJB. P. 68 ४. SSIJ., pp. 11-112
Elliot.. Vol. I PP. 3-24—"The greatest king of India is the Balahara, whose na.oc im
ports 'king of Kings.' "-Ibu Khurdabh, व भाप्रारा०, भाग ३५० १३-१५ ६. 'रत्नमालिका में अमोघवर्ष ने इस बात को इन शब्दों में स्वीकार किया है:'विवेकात्यवतराज्येन राज्ञेयं रत्नभालिका ।
रविताऽमोघवर्षेण सुधियां सदल डुकृतिः ॥" ७. "विघ्तस्तकान्तपक्षस्य स्यावादन्यायवादिनः । देवस्य भूपतुगस्य बर्द्धतां तस्य शासन ॥३॥"
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