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की शक्ति छिन्न-भिन्न होने लगी थी। यह बात गंगावाडी के जैनधर्मानुयायी गंगराजा नरसिंह को सहन नहीं हुई। उन्होंने तत्कालीन राठौर राजा को सहायता की वो और राठोर राजा इन्द्र चतुर्थ को पुनः राज्यसिंहासन पर बैठाया था राजा इन्द्र दिगंबर जैनधर्म का अनुयायी था और उसने सल्लेखना व्रत धारण किया था ।
गंगराजा और सेनापति चामुण्डराय
इस समय गंगवाडी के गगराजाओं ने जैनोत्कर्ष के लिये खास प्रयत्न किया था। रायमल्ल सत्यवाक्य और उनके पूर्वज मारसिंह के मन्त्री घोर सेनापति दिन धर्मानुयायी वीरमा राजा चामुण्डरा थे। इस राजवंश की राजकुमारी पनिया के व्रत धारण किये थे। श्री अजितमेनाचार्य और नेमिचन्द्राचार्य इन राजाओं के गुरु थे। चामण्डराय जी के कारण इन राजाओं द्वारा जैन धर्म की विशेष उन्नति हुई थी। दिगंबर मुनियों का सर्वत्र आनन्दमई विहार होता था । '
कलचुरी वंश के राजा दिगम्बर मुनियों के बड़े संरक्षक
किन्तु गंवों का साहाय्य पाकर भी राष्ट्रकूट वंश अधिक टिक न सका और पश्चिमीय नानुस् प्रधानता पा गये । किन्तु यह भी अधिक समय तक राज्य में कर सके उनको रिया ने हरा दिया। कलचुरी वंश के राजा जैनधर्म के परम भक्त थे। इनमें दिज्जलराजा प्रसिद्ध और जैन धर्मानुयायी था। इसी राजा के समय में वासक ने "लिंगायत मत स्थापति किया था किन्तु जिन राजा की दिगम्बर जैन धर्म के प्रति स भक्ति के कारण वास अपने मत का बहुप्रचार करने में सफल न हो सका था। आखिर जय बिज्जलराज कोल्हापुर के शिलाहार राजा के विरुद्ध करने गये थे, तब इस वासव में धोखे से उन्हें विष देकर मार डाला था। और तब कहीं लिंगायत मत का प्रचार हो सका था । इस घटना से स्पष्ट है कि विज्जल दिगम्बर मुनियों के लिए कैसा आश्रय था !
होयशाल वंशी राजा और दिगम्बर मुनि
सोर के होयसाल वंश के राजागण भी दिगंबर मुनियों के आश्रयदाता थे । इस वंश की स्थापना के विषय में कहा जाता है कि साल नाम का एक व्यक्ति एक मन्दिर में एक जैन यति के पास विद्याध्ययन कर रहा था, उस समय एक शेर ने उन साधु पर आक्रमण किया। साल ने शेर को मारकर उनकी रक्षा की और वह 'होयसाल' नाम से प्रसिद्ध हुया था । " उपरान्त उन्हीं जैन साधु का आशीर्वाद गाकर उसने अपने राज्य की नींव जमाई थी, जो खूब फला फुला था। इस वंश के सबही राजाओं ने दिगंबर मुनियों का आदर किया था, क्योंकि वे सब जेन थे । होयसाल राजा विनयदित्य के गुरु दिगंबर साधु श्री शान्तिदेव मुनि थे। इन राजाओं में विहिदेव अथवा विष्णुवर्द्धन राजा प्रसिद्ध था वह भी जैन धर्म का दृढ अडानी था। उसकी रानी शान्तलदेवी प्रसिद्ध दिखराचार्य श्री प्रभाचन्द्र की शिव्या थी किन्तु उसकी एक दूसरी रानी वैष्णवज की अनुयायी थी। एक रोज राजा इस रानी के साथ राजमहल के झरोखे में बैठा हुआ था कि सड़क पर एक दिगंबर मुनि दिखाई दिये । रानी ने राजा को बहकाने के लिए यह अवसर अच्छा समझा । उसने राजा से कहा कि “यदि दिगम्बर साधु तुम्हारे गुरु हैं तो भला उन्हें बुला कर अपने हाथ से भोजन करा दो" । राजा दिगंबर मुनियों के धार्मिक नियम को भूल कर कहने लगे कि "यह कौन बड़ी बात है" । अपने हीन अंग का उसे ख्याल न रहा । दिगंबर मुनि ग्रंगहीन, रोगी श्रादि के हाथ से भोजन ग्रहण न करेंगे, इसका उसने ध्यान भी नं दिवा योर मुनिराज को पड़गाह किया। मुनिराज अंतराय हुआ जानकर वापस चले गए राजा इस पर चिढ़ गया और वह वाद धर्म में दीक्षित हो गया । किन्तु उसके वैष्णव हो जाने पर भी दिगंबर मुनियों का बाहुन्य उस राज्य में बना रहा। उसकी समपी पान्त देवी अब भी दिगंबर मुनियों की भक्त थी और उसके सेनापति तथा प्रधानमन्त्री गंगराज भी दिगंबर मुनियों के परसेवक थे उनके संसद ने अन्तिम समय में भी दिगंबर मुनियों का सम्मान किया और जैन मन्दिरों को दान दिया था उनके उत्तराधिकारी नरसिंह प्रथम द्वारा भी दिगंबर मुनियों का सम्मान हुआ था। नरसिंह का प्रधानमन्त्री ल्ल दिगवर मुनियों का परम भक्त था। उस समय दक्षिण भारत
१. SSIJ. Pt 112
३. वीर, वर्ष ७ अङ्क १-२ देखो
2. SSIJ, Pt Ip. 115
9. SSIJ. pt. p. 115 C. AR, VoL. IXp. 266
७१२
२. मर्जेस्मा० पृ० १५० ४. जेमा० १०१५-१६ ६. मजेस्मा० पृ० १५६-१५३
. Ibid. P. 116
१०. मर्जरमा प्रस्तावना पु० १३