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पोड़ा को भुनतता संमार में रुलता है। इस संसार परिभ्रमण में जब वह एक शरीर से दूसरे शरीर में जाता है तो उसके साथ मुक्ष्म कार्माण शरीर भी जाता है, जिसके कारण दुसरे दारीर में उसका जन्म होता है। म. बुद्ध के उक्त विवरण में हमें इस सिद्धान्त के विकृत रूप में किचित दर्शन होते हैं।
___ अब जरा और बढ़कर वौद्ध दर्शन में यह तो देखिये कि वह कौन-सी शक्ति है जो विज्ञान को उसका नवीन जन्म देती है ? म. बद्ध ने यह शक्ति कर्म बतलाई है। कर्म में भी उपादान इसके लिए मुख्य कारण है । इस कर्म संबन्ध में भी डा० कोथ साहय हमें विश्वास दिलाते हैं कि इस बात पर बौद्ध शास्त्र प्रायः स्पष्ट है । कर्म का जो किसी रीति से भी टाला नहीं जा सकता। यहान बाजी वहां काम नहीं ती। कर्म का दण्ड अवश्य हो सहन करना पड़ेगा। हा, उस दया में यह निरर्थक हो जाता है जब संमार-प्रवाह की लड़ी को नष्ट करने का साधन मिल गया हो। यहां पर भविष्य के लिए तो कम लागू नहीं हो सकता, किन्त गत कर्मों का कार्य गेले ग्राना ग्रावश्यक है जिससे उनका महत्व हो जाता रहे । अनेक हत्याओं के अपराधी की छुट्टी इस अवस्था में थोड़े से मुक्नों के खाने में ही हो जाती है। इससे स्पष्ट है कि गत संस्कारों और विज्ञान का दूसरे भव में चला आना अवश्यभावी है।
इस तरह जितने भी अपनी व्यक्ति तष्णा के पाधीन हा उसको तृप्त करने की कोशिश करते रहते हैं, उनके विषय में वह कहते हैं, कि संसार में फरहते हैं, और अपने कृतकों के फल के अनुरूप नयोन व्यक्तित्व को जन्म देते हैं । यह कर्मशक्ति किस तरह अपना कार्य करती है, अभाग्यवश यह हमको नहीं बताया गया है। यह भी वुद्ध को 'अनिश्चित बातों में से एक है। म. बद्ध कर्म की कार्य शक्ति तो मानते हैं, परन्तु वह यह नहीं बतलाते कि वह किस तरह काय करतो है । यही कारण है कि रतयं बौद्ध अन्यों में इस विषय पर पूर्वापर विरोधित मत मिलते हैं। जरा "मिलिन्द पन्ह" को ले लीजिए। एक स्थान पर इसमें केवल कर्म को ही दुःख व पीड़ा का कारण नहीं बतलाया है बल्कि पित्त श्लेष्म आदि के ग्राधिक्यरूप आठ कारण और बतलाये हैं वे झूठे हैं। किन्तु इसी ग्रन्थ में अन्यत्र कर्म के प्रभाव को सर्वोपरि स्वीकार किया है। कहा है कि यह कर्म हो है जो शेष सब कालों पर अधिकार जमाये हये है। उसी की तूती सर्वथा बोलती है। इस तरह वौद्ध धर्म में कर्म सिद्धान्त का निरूपण भी पर्ण रूप में नहीं मिलता है। दग कमलाई का दोष म० बुद्ध पर धारोपित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उन्होंने पहले ही संद्धान्तिक वातावरण में ग्राने से इन्कार कर दिया था। वे थे तत्कालीन परिस्थिति के सुधारक और सुधारक भी माध्यमिक कोटि के। इसलिए उनका सैद्धान्तिक विवेचन पूर्णता को लिए हए न हो तो कोई आश्चर्य नहीं। बौद्ध धर्म का सैद्धान्तिक विकास बात करके म. बुद्ध के उपरान्त का कार्य है।
किन्तु इतने पर भी यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध के अनुसार भी संसार एक सनातन प्रवाह है, जिसका प्रारम्भ और ग्रन्त अनन्त के गर्त में है, तथापि वह असत्तात्मक और कर्म के आश्रित हैं । कर्म स्वयं किसी मनुष्य का नैतिक कार्य नहीं बतलाया गया है, परन्तु वह एक सार्वभौमिक सिद्धान्त माना गया है। उसे किसी वाह्य हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है जो उसका फल प्रदान करे । कार्म स्वयं स्वाधीन है, इसलिए बुद्ध के निकट भी एक जगत नियंत्रक ईश्वर की मान्यता को आदर प्राप्त नहीं है।
इस प्रकार सामान्यत: भगवान महावीर और म० बुद्ध का कर्म सिद्धान्त विवरण भी किचित वाह्य सादश्यता रखता है। कर्म का स्वभाव और प्रभाव दोनों और एक-साही माना गया है किन्तु यह एकता केवल शब्दों में ही है । मूल में दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है। भ० महावीर के अनुसार कर्म एक सूक्ष्म सत्तामय पौद्गलिक पदार्थ है, जो संसारी जीव के बन्धन का कारण है। म० बरक निकट वह असत्तात्मक नियम है। विद्वानों ने परिणामतः खोज करके यह प्रकट किया है कि म बनने कर्मसिद्धान्त यो बहत-शी बातों को जैन धर्म से ग्रहण किया था । आश्रय, संवर, शब्द, जो बौद्ध धर्म में शब्दार्थ में व्यवहत नहीं होते, मूल में जैन धर्म के है।
दूसरी ओर म० बुद्ध के उपदेश के विपरीत भगवान महावीर का सिद्धान्त विवेचन यात्मवाद पर आश्रित था। पारमा उसमें मुख्य मानी गई थी, जैसे हम देख चुके हैं। भगवान ने कहा था कि अनन्त काल से प्रात्मा का पुद्गल से सम्बन्ध है। यद्यपि यह आत्मा अपने स्वभाव में अनन्तदर्शन, अनन्त ज्ञान, अनंतवीर्य और अनन्त सुख पूर्ण स्वाधीन है, किन्तु इसके उक्त सम्बन्ध ने इसके असली रूप को मलिन कर दिया है। इसी मलिनता के कारण वह संसार में अनादिकाल से परिभ्रमण कर रही है। इस तरह जो आत्माय संसार परिभ्रमण में फंसी हुई हैं, वे घोर यातनाय और पोड़ायें सहन करतो हैं । उनका यह पौद्गलिक सम्बन्ध उनमें इन्द्रियजनित इच्छायों और वांछानों की ऐसा जबरदस्त तुप्णा उत्पन्न करता है कि वह दिन रात उसी में जला करती हैं। उनक साथ इस परिभ्रमण में एक कार्माण शरीर लगा रहता है, जो पुण्यमई और पाप मई कर्मवर्गणाओं का बना हना है। इस कर्माण शरीर में मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के अनुसार प्रत्येक क्षण नवीन कर्म-वर्गणायें आती रहती हैं और
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