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दिगम्बर जैनाचार्य श्री शुभचन्द्र श्री ज्ञानभषण जी के प्रशिष्य श्री शुभचन्द्राचार्य भी दिगम्बर मुनि थे । उनका पट्ट भी दिल्ली में रहता था। उन्होंने भी विहार करते हुए गुजरात के वादियों का मद नष्ट किया था । वह एक अद्वितीय विद्वान और वादो थे । अनेक ग्रन्थों को उन्होंने रचना की थी। पट्टावलो में उनके लिए लिखा है कि "बद्द छन्द-अलंकारादि शास्त्र--समुद्र के पारगामो, शुद्धात्मा के स्वरूपचिन्तन करने ही से निद्राको विनिष्ट करने वाले, सब देशों में विहार करने से अनेक काल्याणों को पाने वाले, विवेक विचार, चतुरता, गम्भीरता, धीरता, वीरता और गुणगण के समुद्र, अकृष्ट पात्र बाले, अनेक छात्रों का पालन करने वाले, सभी विद्वतमण्डली में सुशोभित शरीर वाले, गोड़वादियों के अन्धकार के लिए सूर्य के समान, कलिंगवादोरूपी मेष के लिए वायु के से, कर्णाटवादियों के प्रथम वचन खण्डन करने में परम समर्थ, पूर्वबादीरूपी मातंग के लिए सिंह के से, तौल वादियों की विडम्बना के लिए वोर, गुर्जर वादिरूपी समुद्र के लिए अगस्त्य के से, मालववादियों के लिए मस्तकाल, अनेक अभिमानियों के गर्व का नाश करने वाले, स्वसमय तथा परसमय के शास्त्रार्थ को जनाने वाले और महावत अंगीकार करने वाले थे।"
बारा नगर का विगम्बर संघ उज्जैन के उपरान्त दिगम्बर मुनियों का केन्द्र विन्ध्याचल पर्वत के निकट स्थित वारा नगर नामक स्थान हो गया था ।वारा एक प्राचीन काल से ही जनधर्म का गढ़ था। पाठवी या नवों दाताब्दि में वहां श्री पद्मनन्दि मुनि ने 'जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति' की रचना की थी। इस ग्रन्थ को प्रशस्ति में लिखा है कि "यारा नगर में शान्ति नामक राजा का राज्य था। वह नगर धमधान्य से परिपूर्ण था। सम्यग्दृष्टि जनों से, मुनियों के समूह से और जैन मन्दिरों से विभूषित था। राजा शान्तिजिनशासनवत्सल, बीर और नरपति संपूजित था। श्री पद्मनन्दिजी ने अपने गुरु व अन्य रूप इन दिगम्बर मुनियों का उल्लेख किया है। वारनंदिर, बलनंदि, ऋषिविजयगुरु, माघनंदि, सकलचन्द्र और श्रीनन्दि। इन्हीं ऋषियों की शिष्य परम्परा म उपरान्त वारा नगर में निम्नलिखित दिगम्बराचार्यों का अस्तित्व रहा था-- माषचन्द्र
सन् २०५३ ब्रह्मनन्दि
"१०७ १. जैसिभा०, भा०१ कि० ४ १०४६-५०--
'छन्दोलकारादि मास्त्ररिस्पतिवार, प्राप्ताना, शुद्धचिद् पचिन्तन विनाशिनिद्राणा, सर्वदेशविहाराबाजानेकमद्राणं विवेकविचार चातुय्य गाम्भोरबंघर्यवीर्यमुरणमणसमुद्राणा, उत्कृष्टपात्राणां, पालितानेक शच्छात्रारणा, विहितानकोत्तमपात्राणाम् सकलविहज मराभायोभितगाबा गौड़वादितमः सूर्य, कलिंगवादिजलदसदागति, करटवाघ्रिथमवचन' खण्डनसमर्थ, पूर्ववादि मतमातंगमगेन्द्र, तौलबादिबिडम्बननीर, गुर्जर वादिसिन्धकुम्भोद्भव, मालववादिमस्तकशूल, जितानेका खर्वगर्वत्रादन वाधराणां ज्ञानस कलस्वसमयपरसमय शास्त्रार्थानां, अंगीकृतमहावतानाम् ।"
२. IA xx 354-354. ३. "सिरिनिलओ गुगासहियो रिसिविजय गुत्ति बिकवाओ।"
"सब संजमसंपणो विकलाओ माघनदिनुरु ।" 'रणवरिषयमसीलकलिदो गुणउत्तो सयलचन्द गुरु ।" "तस्सेव य वरसिस्सो गिम्मनावरणाचा गंजसो । सम्ममणमुद्रा सिरिणंदिगुरुत्ति बिक्खाओ ।। १५६ ।।" पंचाचार समग्गो छज्जीवदयावरो बिगद मोहो । हरिस-विसाय-विहूणा शामरण य वीरणदिति ॥१२६॥" "सम्मत्त अभिगदमणो णरणतह दसण चरित्ते य । परततिरिणयत्रमणो बलरादि मुत्ति विकलाओ ॥१६१।।" तवरियम जोगजुत्तो उज्जुत्तो पणदसण चरिते। आरम्भकरण हियो णामणे य प मरा दीत्ति ।।१६३।।" "सिरि गुरुविजय सयासे सोऊणं आगमं सुपरिसुद्धं ।"
"जिणसासराषच्छलो नीरो-गरवाद संपूजिओं-वाराणयरस्स पहुणरोत्तमोखति भूगालो सम्मादिठिजणीच मुणिगरपरिणबहेहि मंडियं रम्म।" इत्यादि । —जम्बूद्वीप प्राप्ति; जैसा सं०, भाग १ अंक ४ पृ. १५०
४. जैहि०, भाग. ६ अंक ७-८ १.० ३१ व IA Xx 354