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क्त्व परिणाम ऐसा नहीं कह सकते और मिथ्यात्व भी नहीं कह सकते । सम्यकत्व प्रकृति इस कर्म के उदय से जीव के सम्यकत्व मूल सम्यकत्व उत्पत्ति के नाश होने पर भी उसमें चलने आदि के दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इस प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म में तीन प्रभेद हैं।
चारित्र मोहनीय - इसके २५ भेद हैं । श्रनन्तानुबंधि क्रोध, मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, स्वंज्वलन क्रोध मान, माया, लोभ, ये सोलह कर्मों को कषाय कहते हैं। (४+४ +४+४=१६)
हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री बेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद इन नो भेद को 8 कषाय कहते हैं। ये सोलह कषाय ह कषाय मिलकर के चारित्र मोहनीय कर्म कहलाता है ।
५ - श्रायु कर्म - श्रात्मा को देह रूपी पंजन के मजबूत बंधन में रखने वाले कर्म को ग्रायु कर्म कहते हैं । इसमें नरकायु, तिर्य चायु, मनुष्यायु, देवायु ऐसे चार भेद हैं ।
६ - नाम कर्म - प्रात्मा को नाना प्रकार के शरीर अवयव रूप उत्पन्न करने वाले कर्म को नाम कर्म कहते हैं। इसमें
६३ भेद हैं।
७ - गोत्र कर्म -- इस कर्म में अनादि से चले श्राए हुए प्राचरण स्वरूपी उच्च तथा नीच गोत्र में जन्म होना होता है इसमें दो भेद हैं उच्च तथा नीच ।
८- अन्तराय कर्म - ये कर्म दानादि कार्य में विघ्न करता है। इसमें दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय वीर्यातराय, ऐसे चार भेद हैं।
ज्ञानावरणादि सभी कर्म मिलकर १४८ उत्तर प्रकृति रहते हैं ।
घातिया कर्म - ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय कर्म को घातिया कर्म आदि गुण को वात करते हैं। इन चार कर्मों को जीतने से जीव जिन कहलाता है रहता है।
कहते हैं । ये जीव के सम्यग्चारित्र और उनको संसार का भय नहीं
अघातिया कर्म - वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र, इन चार कर्मों को अघातिया कर्म कहते हैं। ये कर्म जीव के ज्ञानादि अणु जीवों के कर्म को घात नहीं करते हैं। जिनेन्द्र भगवान में यह चारों कर्म रहते हैं। जब भगवान सिद्ध बन जाते हैं तो यह कर्म नष्ट हो जाते हैं ।
बन्ध तत्व - चार प्रकार के होते हैं। ज्ञानावरणीय, कर्म पुद्गल और आत्म प्रदेश दूध और काई के समान रहने को द्रव्य बन्ध कहते हैं
द्रव्य बंघ होने के लिए कारण मिथ्यात्व रागादि रूप ऐसे अशुद्ध चेतना भाव को भाव बंध कहते हैं । ज्ञानावरणादि ८ कर्मों के स्वभाव आत्मा के साथ बंध होने को प्रकृति बंध कहते हैं।
ये जब बंध होता है तब कर्म को आत्म घात करने की शक्ति निर्माण होती है। जब तक कर्म श्रात्मा में रहता है उस अवधि को स्थितिबंध कहते हैं। उदाहरणार्थ मोहनीय कर्म ज्यादा से ज्यादा रहता है तो १७ कीड़ा कोड़ी सागर तक रहेगा और एक अन्तमूर्हत काल तक श्रात्मा के साथ रहता है कर्म के अनुदायक शक्ति को बनाने वाले के लिये प्रनुभाग बंध कहते हैं । प्रात्मा के साथ पहले कर्म के संचार को निर्णय करना ही प्रदेश बंध है ।
मन, वचन, काय, ऐसा योग ही प्रकृति बंध और प्रदेश बंध का कारण होता है । अर्थात् श्रात्म प्रदेश के चलायमान को योग कहते हैं कषाय भाव में कमी ज्यादा होने पर स्थिति और अनुभाग में कभी ज्यादा होती है।
पाक्षिक श्रावक का वर्णन
जिनको जैन धर्म के देव, शास्त्र; गुरु के द्वारा आत्म-कल्याण का स्वरूप वा मार्ग भली भांति ज्ञात तथा निश्चित हो जाने से पवित्रधर्म की तथा श्रावक धर्म ( श्रहिंसादि) की प्राप्ति हो जाती, जिनके मंत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ भावनायें दिन २ वृद्धिरूप होती जाती हैं जो स्थूल सहिंसा के त्यागी हैं ऐसे चतुर्थ गुणस्थानी सम्यग्दृष्टि, पाक्षिक श्रावक कहलाते हैं । इन्हें प्रतादि प्रतिमाओं के धारण करने के अभिलाषी होने से प्रारब्ध संज्ञा भी है। इनके सप्त व्यसनों का त्याग तथा श्रष्ट