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दोहा
शबद बंध सूक्षम गरुव, छाया तम संठान | भेद उदोत प्रताप जूत, वपु प्रजाय दश जान ।।१३।।
धर्मद्रव्य वर्णन
रौद्रध्यान
जिय पुद गल जन गमन कराय, धर्मद्रव्य तब होत सहाय । जैसे मीन चल जल जोइ, पै अपनी इच्छा कर सोइ ।।१४||
अधर्म द्रव्य वर्णन जड़ चेतन जब ही थिर होय, तब अधर्म सहकारी होय । ज्यों पंडी बैठो तरु छोहि, जब उठ चले गहै तव मांहि ॥११॥
आकाश द्रव्य वर्णन कालोक दुविध प्राकाश, पूति विजित सदा प्रकाश । धर्म अधर्म काल त्रय दव, पुद्गल जीव पंच ए सर्व ॥१६॥ इनको देय सदा अबकाश, असंख्यात परदेश निवास । लोकाकाश कहावै मोय, परै अलोकाकाश जु होय ॥१७।। दाय विजित तिष्ठं सदा, मूरति हीन क्रिया नहि कदा । सोहै अनंतानंत अकाश, गोचर केवल दृष्टि प्रकाश ||१८||
काल द्रव्य वर्णन नतन द्रव्य ज जीरन करें, यह प्रवर्त समयादिक धरै । घड़ी पहर दिन बर्ष जु जाय, सो व्यवहार काल परजाय ।।१९।। लोज प्रजत असंख्य जु होय, एक एक कालाण जोय । रत्नराशि वत शोभं जहां, भिन्न-भिन्न परदेशी तहां ॥२०॥ काल जीव दगल पुन धर्म, और प्रकाश अधर्म जु धर्म। एही छह दर्वे समुदाय, काल बिना पंचास्ति जु काय ॥२२॥ जीव धर्म अधरम य दर्व, ते असंख्य परदेशी सर्व । नभ अनन्त परदेशी संत, पुद्गल संख्य असंख्य अनन्त ।।२२।। काल एक परदेशी जान, ताते काल काय बिन मान । वर्तमान लक्षण है जास, सदा शास्वतौ द्रब्य प्रकाश ॥२३॥
प्रश्न
भो गरु एक प्रदेशी होय, काल काय विन भाड्यौ सोय । त्यों पुद्गल परमाणू यसै, सो सकाय कर कैसे लसे ॥२४॥
उसर कालाण हैं, अलख असभ्य, भिन्न भिन्न तिप्ठं सुन शिस्य । अापस मांहि मिले नहि सदा, तातं कायवंत नहि कदा ॥२५॥ रूख चौकनादिक गण जाहि, ते परमाण हैं जग मांहि । ततछिन खध रूप दे जाय, याहीतं पुद्गल है काय ॥२६॥
है, क्रोधमोहादि रूप अग्नि मन्तप्त है, विवेकहीन, दयाहीन, मिथ्यात्व व्याप्त, पाप-शास्त्र प्रवृत्त एवं नाना प्रकारके विषयोंसे व्याकुल है महा उग्र पापके करने वाले होते हैं। परनिन्दक, प्रात्म-प्रशंसक और जो असत्य-युक्त पाप कर्मा का कहते फिरते हैं मिथ्या-शास्त्राभ्यास में तत्पर रहते हैं धर्ममें दोप लगाया करते हैं तथा जो वचन जिन-सिद्धान्त सूत्रके विरुद्ध हैं वे पाप संग्रह में प्रवृत्त कराने वाले होते हैं । जिन लोगांका शरीर जघन्य कर्मों का करने वाला है, दुष्ट रूप है मारने बांधने के कर्म में लगा रहता है, बेकार रूप है, दान पूजादिसे हीन है, स्वेच्छाचारी है तप एवं ब्रतसे रहित है, ऐसे लोग नरक के कारण महान् पापों को प्रोर बढ़ते हैं। जिनेन्द्र देव, जिन सिद्धांत निर्ग्रन्थ गुरु जिन-धर्मी (जैनी) इनकी निन्दा करनेसे बड़ा भारी पाप लगता है। इस प्रकार जिनेन्द्र देव भव्य जावों को ससार से विरक्त होने के हेतु पूर्वोक्न प्रकार से महापापों को उत्पन्न करने वाले निन्दनीय कमों का उपदेश किया।
दःशीला स्त्री लोकहिक एबं शत्रु के समान भाई, दुर्व्यसनी पुत्र, प्राणनाशक परिवार, रोग कष्ट, दारिद्रय, वध बन्धन इत्यादि दुःख पापोदय होने के कारण पापियों को होते रहते हैं। पाप ही के फल से लोग अन्धे गूगे बहरे पगले कुबड़े अंगहीन