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ली-बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह को छोड़ दिया और केश उखाड़ कर फेक दिये। उनके साथ में और भी हजार राजानों ने दीक्षा धारण की। उन सब से घिरे हुए भगवान अभिनन्दन बहुत ही शोभायमान होते थे। उन्होंने दीक्षा लेते समय बेला अर्थात दो दिन का उपवास धारण किया था।
जब तीसरा दिन पाया तब वे मध्याह्न से कुछ समय पहले आहार लेने के लिए अयोध्यापुरी में गये। उस समय वे प्रागे चार हाथ जमीन देखकर चलते थे, किसी से कुछ नहीं कहते, उनकी प्राकृति सौम्य थी दर्शनीय थी। वे उस समय ऐसे मालूम होते थे मानों चचाल चित्रं किलकान्चनाद्रि मेरु पर्वत ही चल रहा हो । महाराज इन्द्रदत्त ने पड़गाह कर उन्हें विधिपूर्वक आहार दिये जिससे उनके घर देवों ने पंचाश्चर्य प्रकट किये। वहां से लौट कर अभिनन्दन स्वामी वन में जा विराजे और कठिन तपस्या करने लगे। इस तरह अट्ठारह वर्ष तक छमस्थ अवस्था में रहकर बिहार किया।
एक दिन बेला उपवास धारण कर वे शाल वृक्ष के नीचे विराजमान थे। उसी समय उन्होंने शुक्ल ध्यान के अवलम्बन से क्षपक श्रेणी मांढ क्रम क्रम से आगे बढ़कर दश गुणस्थान के अन्त में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर दिया फिर बढ़ती हुई विशुद्धि से बारहवं गुणस्थान में पहुंचे। वहां अन्तमुहूत ठहर कर शुक्ल ध्यान के प्रताप से अवशिष्ट वातिया कर्मों का नाश किया जिससे उन्हें पोष शुक्ल चतुर्दशी के शाम के समय पुनर्वसु नक्षत्र में अनन्त चतुष्टय, अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य प्राप्त हो गये । उस समय सब इन्द्रों ने प्राकर उनकी पूजा की, ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया । धनपति ने समवसरण की रचना की जिसके मध्य में सिंहासन पर अधर विराजमान होकर पूर्ण ज्ञानी भगवान अभिनन्दन नाथ ने दिव्य ध्वनि के द्वारा सब को हित का उपदेश दिया। जोव, अजीव, पाश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्वों का विशद व्याख्यान किया । संसार के दुखों का वर्णन कर उससे छूटने के उपाय बतलाये। उनके उपदेश से प्रभावित होकर अनेक प्राणी धर्म में दीक्षित हो गये थे । वे जो कुछ कहते थे वह विशुद्ध हृदय से कहते थे इसलिए लोगों के हृदयों पर उसका असर पड़ता था। आर्य क्षेत्र में जगह-जगह घूम कर उन्होंने मार्ग पर्म का प्रचार नियागौर.संसार
सिपड़े हुए प्राणियों को हस्तावलम्बन दिया।
.. तस्माद्भवन्तो हृदयेन जाताः सवें महीयांसममु सनाभम् ।
अकिल्ष्टबुद्धया भरतं भजध्वं शरणं त्वद्भरणं प्रजानाम् । तुम सब मेरे उस शुद्ध सत्वमय हृदय से उत्पन्न हुए हो, इमलिये मत्सर छोड़कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। उसकी रोवा' करना मेरी ही सेवा करना है और यही तुम्हारा प्रजापालन भी है।
भूतेषु वीरुभ्यः उदुत्तमा ये सरीसृपास्तेषु सबोधनिष्ठाः
ततो मनुष्याः प्रमथास्तलोऽपि गन्धर्वसिद्धा विबुधानुगा ये । अन्य सब भूतों की अपेक्षा वृक्ष अत्यंत श्रेष्ठ हैं, उनसे चलने वाले जीव श्रेष्ठ हैं और उनमें भी कीटादि की अपेक्षा ज्ञानयुक्त गशु आदि श्रेष्ठ हैं । पशुअ से मनु, मनुष्यों रो प्रमथगण प्रथमो से गन्धर्व, गन्धों से सिद्ध और सिद्धों से देवताओं के अनुयायी किन्नरादि थोष्ठ हैं।
देवासुरेभ्यो मधवप्रधाना दक्षादयो ब्रह्मसुतास्तु तेषाम् । भवः परः सोऽथ विरिञ्चवीर्यः स मत्परोऽहं विजदेवदेवः ।
उनसे असुर, असुरों से देवता और देवताओं से भी इन्द्र श्रेष्ठ हैं इन्द्र से भी ब्रह्माजी के पुत्र पक्षादि प्रजापति श्रेष्ठ है। ब्रह्माजी के पुत्रों में रुद्र सबसे श्रेष्ठ हैं। वे ब्रह्माजी से उत्सन्न हुए हैं, इसलिवे ब्रह्माजी उनसे श्रेष्ठ हैं। बे भी मुझसे उत्पन्न हुए हैं, और मेरी उपासना करते हैं, इसलिये मैं उनसे भी श्रेष्ठ है। परंतु ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ट हैं, क्योंकि मैं उन्हें पूज्य मानता हूँ। .