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पहिनाये फिर मे पर्वत मे वापिस आकर अयोध्यापुरी में अनेक उत्सव मनाये। राजा ने याचकों के लिए मनचाहा दान दिया। इन्द्र ने राजा, बन्धुषों की सलाह से बालक का अभिनन्दन नाम रखा। बालक प्रभिनन्दन अपनी बराल चेष्टाओं से सब के मन को आनन्दित करता था इसलिये उसका अभिनन्दन नाम सार्थक हो था जन्मकल्याणक का महोत्सव मनाकर इन्द्र वगैरह अपने-अपने स्थानों पर वापिस चले गये। पर इन्द्र की भाशा से बहुत से देव बालक अभिनन्दन कुमार के मनोविनोद के लिए वहीं पर रह गये। संभवनाथ के बाद दस लाख करोड़ सागर समय बीत चुकने पर भगवान् अभिनन्दन नाथ हुये थे। उनकी आयु पचास लाख पूर्व की थी, शरीर की ऊंचाई तीन सौ पचास धनुष की थी और रंग सुवर्ण की तरह पीला था, उनके शरीर से सूर्य के समान तेज निकलता था ये मूर्तिधारी पुण्य के समान मालूम होते थे ।
जब इनकी आयु के साढ़े बारह लाख वर्ष बीत गये तब महाराज स्वयंवर ने इन्हें राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली । अभिनन्दन स्वामी ने भी राज्य सिंहासन पर विराजमान होकर साढ़े छत्तीस लाख पूर्व और आठ पूर्वाग तक राज्य किया।
एक दिन वे मकान की छत पर बैठकर आकाश की शोभा देख रहे थे देखते-देखते उनको दृष्टि एक भावलों के समूह पर पड़ी। उस समय वह बादलों का समूह आकाश के मध्य भाग में स्थित था। उसका आकार किसी मनोहर नगर के समान था। भगवान अनिमेष दृष्टि से उनके सौन्दर्य को देख रहे थे। पर इतने में वायु के प्रबल वेग से बादलों का समूह नष्ट हो गया— कहीं का कहीं चला गया। बस, इसी घटना से उन्हें श्रात्म ज्ञान प्रकट हो गया, जिससे उन्होंने राज्य कार्य से मोह छोड़ कर दीक्षा लेने का विचार कर लिया। उसी समय लौकान्तिक देवों ने भाकर उनके विचारों का समर्थन किया, चारों निकायों के देशों ने आकर दीक्षा कल्याणक का उत्सव किया अभिनन्दन स्वामी राज्य का भार पुत्र के लिए सौंपकर देव निर्मित हस्तचिया पालकी पर सवार हुए। देव उस पालकी को उठा कर उम्र नाम उद्यान में ले गये वहाँ उन्होंने माघ शुक्ला द्वादशी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र के उदय में शाम के समय जगदुद्दन्य सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार कर दीक्षा धारण कर
करते कि इस वैर-विरोध के कारण नरक आदि अनन्त घोर दुःखों की प्राप्ति होगी ।
कर स्वयं तदभियो विपरिषद् मविद्यायामन्तरे वर्तमानम् । हृष्ट्वा । पुनस्तं सघृणः कुबुद्धि प्रयोजयेदुत्पथगं यथान्धम् ।
गढ़े में गिरने के लिये उल्टे ग्रस्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे
वाला गुरु उपर नहीं जाने देता
अ
येही अज्ञानी मनुष्य को में फैलकर दुःखों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान-बूबकर भी उसे उसी राह पर जाने दे, या जाने के लिये प्रेरणा करे |
गुस स्यात्स्वजनो त स स्यात् पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात् । देवं न तत्यान्न पतिश्व पतिश्ण स स्वान्न मोचयेय: समुपेतमृत्युम् ।
जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसो से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता पिता नहीं है, माता मात्रा नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है।
इदं शरीरं नम विभासत्वं हि मे हृदय कृतां मे वदधर्म मा भयो हि
षभरा
मेरे इस अवतार शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धि
नहीं है। शुद्ध सत्य ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया है, इसी से सत्पुरूष मुझे 'ऋषभ' कहते हैं ।
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