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२ वर्तमान परिचय
जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में अयोध्या नाम की नगरी है जो विश्व तीर्थकरों के जन्म से महा पवित्र है। जिस समय की यह वार्ता है उस समय वहां स्वयम्बर राजा राज्य करते थे उनकी महारानी का नाम सिद्धार्था था । स्वयम्बर महाराज वीर लक्ष्मी के स्वयम्बर पति थे वे बहुत ही विद्वान और कठिन से कठिन कार्यों को वे अपनी बुद्धि बल से अनायास ही कर डालते थे, जिससे देखने वालों को दातों तले अंगुली दबानी पड़ती थी। राज दम्पति तरह-तरह के सुख भोगते बिताते थे ।
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हुए दिन
ऊपर जिस धमिन्द्रि का कथन कर आये उसकी बायु जय विजय विमान में छह मास की बाकी रह गई तब से राजा स्वयंवर के घर के प्रांगन में प्रति दिन रहनों की वर्षा होने लगी। साथ में और भी अनेक शुभ शकुन प्रकट हुये जिन्हें देखकर भावी शुभ की प्रतीक्षा करते हुये राजदम्पति बहुत ही हर्षित होते थे। इसके अनन्तर महारानी सिद्धाने गाव षष्टी के दिन पुनर्वसु नामक नक्षत्र में रात्रि के पिछले प्रहर में सुरकुंजर आदि सोलह स्वप्नों को देखा । सवेरे स्वयंवर महाराज ने उनका फल कहा—प्रिये ! बाज तुम्हारे गर्भ में स्वर्ग से चयकर किसी पुण्यात्मा ने अवतार लिया है तो माह बाद तुम्हारे तीर्थंकर पुत्र होगा जिसके बल, विद्या, वैभव, ग्रादि के सामने देव देवेन्द्र अपना माया पुनेने पति के मुंह से भावी पुत्र का महात्म्य सुनकर सिद्धार्थों के हर्ष का पारावार नहीं रहा। उस समय उसने अपने पापको समस्त स्त्रियों में समझा था । गर्भ में स्थित तीर्थकर बालक के पुण्य प्रताप से देव कुमारियां ग्राकर महारानी की सुश्रूषा करने लगी और चणिकाय के देयों ने ग्राकर स्वर्गीय वस्त्राभूषणों से खूब सत्कार किया, लूद उत्सव मनाया, खूब भक्ति प्रदर्शित की। धीरे २ जब गर्भ के दिन पूर्ण हो गये सब रानी सिद्धार्था ने माघ शुक्ल द्वादशी के दिन आदित्य योग और पुनर्वसु नक्षत्र में उत्तम पुत्र उत्पन्न किया । देवों ने मेरुपर्वत पर ले जाकर रमणीय सलिल से उनका अभिषेक किया। इन्द्राणी ने तरह-तरह के आभूषण
सारभूत
कर्माशिय
हृदयग्रन्न्धिबन्धमविद्ययाऽसादितमप्रमत्तः
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अनेन योगेन यथोपदेशं सम्यग्व्यपोह्यो परमेत योगात् ।
मनुष्य को चाहिये कि वह सावधान रहकर अधिया से प्राप्त इस हृदय ग्रन्थि रूप बन्धन को शास्त्रोक्त रीति से इन साधनों के द्वारा भली-भांति काट डाले; क्योंकि यही कर्म संस्कारों के रहने का स्थान है। तदन्तर सावन को भी परित्याग कर दे।
पुत्राश्च शिष्यांश्च नृपो गुरुर्खा मल्लोककामो मदनुग्रहार्थः इत्थं विमन्युरनुशिष्यादतज्ज्ञान् न योजयेत्कर्म कर्ममूहान् । कं योजयन्मनुजोऽर्थं लभेत निपातयन्नष्टदृशं हि गर्ते ।
जिसको मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रहकी प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानता हो वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजा को, गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्रा' को ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परमपुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उस पर कोच न करके उन्हें समझा बुझाकर कर्म में न हो उन्हें
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काम्यकमों में जयाना तो ऐसा ही है जैसे किसी
मनुष्य को जानना में इकेल देना
इस भला किस पुरुषार्थ की सिद्धि हो
सकती है।
लोक: स्वयं मनि दृष्टिन् समीत freeदमः । अन्योन्यवैरः सुखलेशहेतो रनन्तदुःखं च न वेद मूढः ।
असा कल्याण किस बात में है, इससे लोग नहीं जानते इसीसे वे तरह तरह की मांग-कामनाओं में फसकर कुछ आरएक सुख के लिये आपस में वैर ठान लेते हैं और निरंतर विषयभोगों के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मुर्ख इस बात पर कुछ भी विचार नहीं
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