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पूर्व भव परिचय जम्बू द्वीप के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तट पर एक मंगलावती नामक देश है। उसमें रत्न संचय नाम का एक महा मनोहर नगर है । उसमें किसी समय महाबल नाम का राजा राज्य करता था। वह बहुत ही सम्पत्तिशाली था। उसके राज्य में सब प्रजा सुखी थी, चारों वर्गों के मनुष्य अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करते थे। महाबल दर असल में महावल ही था । उसने अपने बाहुवल से समस्त बिरोधी राजाओं के दांत खट्टे कर दिये थे। वह सन्धि विग्रह, यान, संस्थान, प्रासन और द्वैधीभाव इन छह गुणों से विभूषित था। उसके साम, दाम, दण्ड और भेद ये चार उपाय कभी निष्फल नहीं होते थे। वह उत्साह, मंत्र और प्रभाव इन तीन शक्तियों से युक्त था, जिससे वह हर एक सिद्धियों का पात्र बना हुआ था। कहने का मतलब यह है कि उस समय वहां राजा महाबली की बराबरी करने वाला कोई दूसरा राजा नहीं था। अपनी कान्ति से देवांगनाओं को भी पराजित करने वाली अनेक नर देवियों के साथ तरह-तरह के सुख भीगते हुए महाबल का बहुत सा समय व्यतीत हो गया।
एक दिन कारण पाकर उसका चित्त विषय वासनाओं से हट गया जिससे वह अपने धनपाल नामक पुत्र को राज्य देकर विमलवाहन गुरु के पास दीक्षित हो गया । अब मुनिराज महाबल के पास रस मात्र भी परिग्रह नहीं रहा था। वे शरदी, गर्मी, बर्षा, क्षधा, आदि के दुःख समता भावों से सहने लगे। संसार और शरीर के स्वरूप का विचार कर निरन्तर संवेग मोर वैराग्य गुण की वृद्धि करने लगे। प्राचार्य विमलवाहन के पास रह कर उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया तथा दर्शन विशद्धि आदि सोलह भावनाओं का विशुद्ध हृदय से चिन्तवन किया जिससे उन्हें तीर्थकर नामक महापुण्य प्रकृति का बन्ध हो गया। प्रायु के अन्त में वे समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर विजय नाम के पहले अनुत्तर में महा ऋद्धिधारी अहमिन्द्र हुए। वहां उनकी तेतीस सागर प्रमाण पाय थी, एक हाथ बरावर सफेद शरीर था, वे तेतीस हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेते और तेतीस पक्ष में एक बार श्वासोच्छ्वास लेते थे। वहाँ वे इच्छा मात्र से प्राप्त हुई उत्तम द्रव्यों से जिनेन्द्र देव की अर्चा करते और स्वेच्छा से मिले हुये देवों के साथ तत्व चर्चा करके मन बहलाते थे। यही अहमिन्द्र आगे चल कर भगवान अभिनन्दन नाथ हुये ।
सर्वत्र जन्तोर्व्यसनावगत्या जिज्ञासया तपसहागिवृत्त्या । मत्कर्मभिर्मत्कधया च नित्यं श्रद्देवसङ्गाद गुणकीर्तनान्मे । निवरसाम्योपशमेन पुरा जिहासया देहगेहारमबुद्धः । अध्यात्मयोगेन विधिसमेवया नाणेन्द्रियात्माभिजयेन सध्यक् । सच्ख या ब्रह्मचर्येण शश्वद् असम्पमादेन' यमेन बाचाम् । सर्वत्र मदावविचक्षणेन ज्ञानेन विज्ञानविराजितेन ।
योगेन धृत्युद्यमसत्वयुक्तो लिङ्ग व्यापोहेत्कुमालो हमाभ्याम् । पुओ ! संसार सागर से पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्वगुण मुक्त विशिष्ट पुरुष को चाहिये कि सब के आत्मा और गुण स्वरूप मुझ भगवान् में भक्तिभाव रखने से, मेरे परायण रहने मे, तृष्णा के त्याग से, गुग्न-दुःख आदि द्वन्द्वों के महने रो 'जीव को सभी योनियों में दुःख ही उठाना पड़ता है इस विचार से, तत्व जिज्ञासा से, तप से, सकाम कर्म के त्याग से मेरे ही लिये कर्म करने से मेरी कक्षाओं को नित्य प्रति श्रवण से, मेरे भक्तों के सजा और मेरे गुणों के कीर्तन से, वरत्याग से, समता से, शान्ति से और शरीर वथा घर आदि में मैं-मेरे पर के भाव' को त्यागने की इच्छा से, आध्यात्मशास्त्र के अनुशीलन से, एकान्न सेवन से, प्राग इन्द्रिय और मन के संयम से, शास्त्र और सत्पुरुषों के मन में यथार्थ बुद्धि रखने से, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, कर्तव्य कर्मों में निरन्तर सावधान रहने से, वाणी के संवम से, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखने में, अनुभव ज्ञान राहित तत्व विचार से और योग साधन से अहङ्कार रूप अपने लिङ्ग शरीर को लीन कर दें।
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