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वास्तविक रूप समझाया संसार का स्वरूप बतलाया चारों गतियों के दुःख प्रकट किये और उनसे छुटकारा पानेके उपाय बतलाए । उनके उपदेश से प्रभावित होकर असंख्य नर नारियों ने ब्रत अनुष्ठान धारण किये थे । क्रम-क्रम से उन्होंने समस्त आयुश्क्षेत्रों में बिहार कर सार्व धर्म जैन धर्म का प्रचार किया था।
उनके समवशरण में चारण यादि एक सौ पांच गणधर ये दो हजार एक सौ पचास द्वादशांग के वेत्ता थे, एक साथ उन्तीस हजार तीन सौ पचास मन:पर्ययज्ञानी थे, उन्नीस हजार बाठ सी क्रिया ऋद्धि के धारी थे धीर बारह हजार वादी थे। जिनसे भरा हुआ समवशरण बहुत ही भला भालूम होता था । धर्माया आदि तीन लाख वीस हजार ग्रायिकाएं थी, तीन लाख श्रावक, पांच लाख श्राविकाएं, असंख्य देव देवियाँ और असंख्यात तियंच उनके समवशरण की शोभा बढ़ाते थे। भगवान भवनाथ अपने दिव्य उपदेश से इन समस्त प्राणियों को हित का मार्ग बतलाते थे ।
मान हुए और हजार मनुष्यों के साथ प्रतिमा योग धारण कर श्रात्म ध्यान में लीन हो गये । बाकी बचे हुए चार अघातिया कर्मों का नाश कर चैत्र शुक्ला पष्ठी के दिन सांयकाल के सिद्धिसदन मोक्ष को प्राप्त हुए। देवों ने खाकर उनका निर्वाण महोत्सव मनाया।
अंत में जब धावु का एक महीना बाकी रह गया सब से बिहार बन्द कर सम्मेदल को किसी शिखर पर जाकर विराज अन्त में शुक्ल ध्यान के प्रताप से समय मृगशिर नक्षत्र के उदय में
भगवान अभिनन्दन नाथ
गुणाभिनंदा द िदनो भवान् दयावधं शांति सुखी मशिश्रियत् । समाधि तन्त्र पोपपत्तये द्वयेन नैध्य गुणेन वायुजत् ॥
- स्वामी समन्तभद्र
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जिनेन्द्र | सम्यभ्यदर्शन यादि गुणों का अभिनन्दन करने से अभिनन्दन कहलाने वाले अपने शान्ति सुखों से युक्त दवा रूपी स्त्री का आश्रय किया था और फिर उसकी सत्कृति के लिए ध्यान करते हुए श्राप द्विविध अन्तरंग बहिरंग रूप निप्परग्रहता से मुक्त थे।
यदा न पश्यत्ययथा गुहां स्वार्थे प्रमत्तः सहसा विपश्चित् । स्मृतिविन्दति तन तापा नाबाद मेम्यगारम
स्वार्थ में पागल जीव जब तक
विवेकदृष्टि का आश्रय लेकर इन्द्रियों की शेष्टाओं को मिथ्या नहीं देखता, तब तक आत्म स्वरूप की स्मृति खो बैठने के कारण वह अज्ञानवश विषप्रवान गृह आदि में आसक्त रहता है और तरह-तरह के क्लेश उठाता रहता है ।
राः त्रियामिनीभावः । अतो गृहक्षेत्र सुतान्तविसे जनस्य मोहोन्यमहं ममेति ।
स्त्री और पुरुष – इन दोनों का जो परस्पर दाम्पत्य भाव है, इसी को पण्डितजन उनके हृदय की दूसरी स्थूल एवं दुभैव ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूप एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहले से ही हैं। इसी कारण जीव को देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर-खेत, स्वजन और धन आदि में भी 'मैं' और 'मेरे' पन का मोह हो जाता है ।
पुत्र
मदा मनोदयग्रन्थिरस्य कमजो रह आनयेत । वा जनः सम्परिवर्ततेऽस्माद मुक्ताः परं पाहा हेतुम जिस समय कर्मवासनाओं के कारण पड़ी हुई इसकी यह
हो जाता है और संसार के हेतुभूत अहंकार को त्याग कर सब के बन्धनों से मुक्त हो परम पद प्राप्त कर लेता है । हंसे गुरौ मयि भक्त्यानुवृत्मा वितृष्णया वृन्द्वतितिक्षमा च ।
हृदय-ग्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्य भाव से निवृत्त
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