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पुत्रों के मोह में उलझा हुआ श्रात्म हित की ओर प्रवृत्त नहीं हो रहा हूं ये एक भी मेरे साथ न जायेंगे। इस तरह भगवान संभवनाथ उदासीन होकर वस्तु का स्वरूप विचार ही रहे थे कि इतने में लोकान्तिक देवों ने थाकर उनके विचारों का खूब समर्थन किया बाहर भावनाओं के द्वारा उनकी वैराग्य धारा को खूब बड़ा दिया अपना कार्य समाप्त कर लौकान्तिक देव ब्रह्मलोक को वापिस चले गये। इधर भगवान जिन पुत्र को राज्य देकर वन में जाने के लिए तैयार हो गये । देव और देवेन्द्रों ने बाकर इनके तप कल्याणक का उत्सव मनाया। तदनन्तर ये सिद्धार्थ नाम की पालकी पर सवार होकर श्रावस्ती के समीपवर्ती क्षेत्र में अब इष्ट जनों से सम्मति लेकर मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णमासी के दिन शाल वृक्ष के नीचे एक हजार राजाओं के साथ जिन दीक्षा ते मी वस्त्राभूषण उतार कर फेंक दिये, पंच मुठियों से उखाड़ा और उपवास की प्रतिज्ञा ले पूर्व की ओर मुंह करके ध्यान धारण कर लिया। उस समय का दृश्य बड़ा ही प्रभावक था । देखने वाले प्रत्येक प्राणी के हृदय पर वैराग्य की गहरी छाप लगती जाती थी। उन्हें दीक्षा के समय ही मनः पर्यय ज्ञान हो गया था जो उनकी ग्रात्म शुद्धि को प्रत्यक्ष कराने के लिए प्रबल प्रमाण था ।
दूसरे दिन उन्होंने आहार के लिए श्रावस्ती नगरी में प्रवेश किया। उन्हें देखते ही राजा सुरेन्द्रवन्त ने पढ़नाह कर विधिपूर्वक आहार दिया। श्राहार दान से प्रभावित होकर देवों ने सुरेन्द्रदत्त के घर पंचाश्चर्य प्रकट किये थे। भगवान शंभवनाथ आहार लेकर समिति से बिहार करते हुए पुनः वन को वापिस चले गये और जब तक छद्मस्थ रहे तब तक मौन धारण कर तपस्या करते रहे । यद्यपि वे मौनी होकर ही उस समय सब जगह विहार करते थे तथापि उनकी सौम्य मूर्ति के देखने मात्र से ही अनेक भव्य जीव प्रतिबुद्धि हो जाते थे । इस तरह चौदह वर्ष तक तपस्या करने के बाद उन्हें कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन मशिर नक्षत्र के उदय में संख्या के समय केवल ज्ञान प्राप्त हो गया था। भवनवासी व्यार, ज्योतिषी और कल्पवासी इन चारों प्रकार के देवों ने प्राकर उनके ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया । इन्द्र की श्राज्ञा से कुबेर ने समवशरण की रचना को । जिसके मध्य में देव सिंहासन पर अन्तरिक्ष विराजमान होकर अपनी सुलखित दिव्य भाषा में सबको धर्मोपदेश दिया। वस्तु का
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अगवा मुझ परमात्मा के प्रेम काही जो एक मात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करने वाले लोगों में तथा स्त्री पुत्र और धन आदि सामदियों से सम्पन्न घरों में जिनकी रुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीरनिर्वाह के लिए ही प्रवृत होते हों।
नूनं प्रमत्तः कुरुते विक्रमं यदिमिप्रीतय प्रापूपोति ।
न साधु मन्ये यत आत्मोऽयमसुन्नपि क्लेशद आस देहः ।
मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये होती हैं। मैं इसे अच्छा नहीं समझता क्योंकि इसी के कारण आत्मा को यह ग्रसत् और दुःखदायक शरीर प्राप्त होता है।
पराभवस्तावददोषजातो यावन्न जिज्ञायत ग्रात्मतत्त्वम् ।
पिता मनोमयेन पशरीरवन्धः ।
जब तक जीव को आत्मतत्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जब तक वह लौकिक-वैदिक कर्मों में ऐसा रहता है, तबतक मन में कर्मको वासनाएं की बनी ही रहती हैं और इन्हीं से देह धन की प्राप्ति होती है।
एवं मनः कर्मप्रवृते विदयामन्यु
प्रीतिनं वावन्मयि वासुदेवे न मुच्यते देहयोगेन तावत् ।
इस प्रका अविद्या के द्वारा आत्म स्वरूप के ढक जाने कर्मवासनाओं के वशीभूत हुआ चित्त मनुष्य का फिर कर्मों में ही प्रवृत करता । अतः जबतक उसको मुझ बासुदेव में प्रीति नहीं होती, ववतक यह देह बन्धन से छूट नहीं सकता ।
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