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इधर सिंहचन्द्र राजा हुया और पूर्णचन्द्र युवराज बना । राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते हुए उन दोनों का बहुत भारी समय जब एक क्षण के समान बीत गया। तब एक दिन राजा सिंहसन की मृत्यु के समाचार सुनने से दान्तमति और हिरण्यमति नाम को संयम धारण करने वाली प्रायिकाएँ रानी रामदत्ता के पास प्राई। रामदत्ता ने भी उन दोनों के समीप संयम धारण कर लिया। इस शोक से राजा सिहचन्द्र पूर्णचन्द्र नामक मुनिराज के पास गया और धर्मोपदेश सुनकर यह बिचार करने लगा कि यदि यह मनुष्य-जन्म व्यर्थ चला जाता है तो फिर इसमें उत्पत्ति किस प्रकार हो सकती है, इसमें उत्पत्ति होने की प्राशा रखना भ्रम मात्र है अथवा नाना योनियों में भटकना ही वाकी रह जाता है। इस प्रकार विचार कर उसने छोटे भाई पूर्णचन्द्र को राज्य में नियुक्त किया और स्वयं दीक्षा धारण कर ली। वह प्रमाद को छोड़कर विशुद्ध होता हुआ संयम के द्वितीय गुणस्थान अर्थात् अप्रमत्तविरत नामक सप्तम गुणस्थान को प्राप्त हुआ। तप के प्रभाव से उसे प्राकाशचारण ऋद्धि तथा मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हुअा । किसी समय रामदत्ता सिंहबन्द्र मुनि को देखकर बहुत ही हर्षित हुई। उसने मनोहर वन नाम के उद्यान में विधि पूर्वक उनकी वन्दना की, तप के निर्विघ्न होने का समाचार पछा और अन्त में पुत्र स्नेह के कारण यह पूछा कि पूर्णचन्द्र धर्म को छोड़कर भोगों का आदर कर रहा है वह कभी धर्म को प्राप्त होगा या नहीं? सिंहवन्द्र मुनि ने उत्तर दिया कि खेद मत करो, वह अवश्य ही तुम से अथवा अन्य से तुम्हारे धर्म को ग्रहण करेगा । मैं इसके अन्य भव से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहता हूं सो सुनो।
कोशल देश के वृद्ध नामक ग्राम में एक मृगायण नाम का ब्राह्मण रहता था। उसको स्त्री का नाम मधुरा था। उन दोनों के वारुणी नाम की पुत्री थी, मृगायण प्रायु के अन्त में मरकर साकेत नगर के राजा दिव्यबल और उसकी रानी सुमति के हिरण्यवती नाम की पुत्री हुई। वह सतो हिरण्यवती पोदनपुर नगर के राजा पूर्णचन्द के लिए दो गई–व्याही गई। मृगायण की स्त्री मधुरा भी मरकर उन दोनों पूर्णचन्द्र और हिरण्यवती के तू रामदत्ता नाम की पुत्री हुई थी, सेठ भद्रमित्र तेरे स्नेह से सिंहचन्द्र नाम का पुत्र हुमा था पीर वारुणी का जीव' यह पूर्णचन्द्र हरा है। तुम्हारे पिता ने भद्रबाह से दीक्षा ली थी और उनसे मैंने दीक्षा ली थी। इस प्रकार तुम्हारे पिता हम दोनों के गुरु हुए हैं। तेरी माता ने दीक्षा धारण की थी और फिर हिरण्यवतो माता से तूने दीक्षा धारण को है। ग्राज मुझे सब प्रकार की शान्ति है। राजा सिंहसेन को सांप ने डस लिया था जिससे मर कर वह बन में प्रशनिघोप नाम का हाथी हुा । एक दिन वह मदोन्मत्त हाथी बन में घूम रहा था, वहीं मैं था, मुझे देखकर वह मारने को इच्छा से दौड़ा, मुझे आकाशचारण ऋद्धि थी। अतः मैंने अाकाश में स्थित हो पूर्वभव का सम्बन्ध बताकर उसे समझाया। वह ठीक-ठोक सब समझ गया जिससे उस भव्य ने शीघ्र ही संयामासंयम- देशवत ग्रहण कर लिया। पब उसका चित्त बिलकुल शान्त है, वह सदा विरक्त रहता हआ शरीर प्रादि की निःसारता का विचार करता रहता है, लगातार एक माह के उपवास कर सूखे पत्तों की पारणा करता है।
इस प्रकार महान धैर्य का धारक वह हाथी चिरकाल तक कठिन तपश्चरण कर अत्यंत दुर्वल हो गया। एक दिन वह युपकेसरिणी नाम की नदी के किनारे पानी पीने के लिए घुसा। उसे देखकर श्रीभूति-सत्यघोष के जीव ने जो मरकर चमरी मग और बाद में कुकुट सर्प हुप्रा था उसी हाथी के मस्तक पर चढ़कर उसे इस लिया। उसके विष से हाथी मर गया, बह च् कि समाधिमरण से मरा था। अतः सहस्रार स्वर्ग के रविप्रिय नामक विमान में श्रीधर नाम का देव हुमा । धमिल ब्राह्मण जिसे कि राजा सिंहसेन ने श्रीभूति के बाद अपना मन्त्री बनाया था प्रायु के अन्त में मरकर उसी वन में वानर हा था। उस वानर की और पूर्वोक्त हाथी को समान मित्रता थी। अत: उसने उस कुकूट सर्प को मार डाला जिससे वह मर कर तीसरे नरक में उत्पन्न हुआ। इधर शूगालवान नाम के व्याघ्र ने हाथी के दोनों दांत तोड़े और अत्यन्त चमकीले मोती निकाले तथा धमित्र नामक सेठ के लिए दिये । राजश्रेष्ठी धनमित्र ने वे दोनों दांत तथा मोती राजा पर्णचन्द के लिए दिये । राजा पूर्ण चन्द्र ने उन दोनों दांतों से अपने पलंग के चार पाये बनवाये और मोतियों से हार बनवा
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