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दोहा धन्य वीर जिनराज जग, तन मन चलउ न रंच। अचल ध्यान धर मेरु सम जोतों इंन्द्रिय पंच ॥३४३।। चल्यौ न वाकी चाल कछु, लंपट भयो मलीन । चरण कमल' प्रभु के प्रणमि, पुनि बहुविधि थुति कीन ॥३४४॥
चौपाई तुम प्रभु जगमें सुगुरु सुजान, तुम वीरन में वीर महान । तुम सम तेज न जगमें और, जीती दुसह परीषह ठोर ॥३४५।। संग रहित विहरत जिमि बाऊ, अचल मनों पर्वत के राऊ। क्षमावंत पथ्विी सम देव, गुण गहीर सागर जिमि एव ॥३४६॥ भव उपदेशक सुधा समान, कर्म महाबन अगिन प्रमान । वर्धमान जय वर्धक बोन, सन्मति शुभमति दाता जान ।।३४७|| नमों मेक सम अचल जिनेश, नमौं पात्मा थिति परमेश । नौ जोग प्रतिमा सम चित्त, नमौं एक सम अरि अरु मित्त ॥३४८।।
दोहा यह प्रकार थुति कीन बहु, पुनि पुनि प्रन मैं पाय । क्षमा करो मो दीन पर महावीर जिनराय ॥३४६।। उमा सहित नृत्तत भयौ, अति आनन्द उर नेह । चारित हीन जु रुद्र यह, गयो आपने गेह ॥३५०॥ धोरजको धर सत पुरुष, टरं विपत अंकूर । सन्मति प्रभु उपसर्ग सह, दुर्जनके मुख धूर ॥३५१॥ पाप कियो शठ प्रापको, प्रभु बाधा नहि लेश । सो श्री सन्मति प्रभु हमहि, भव भव शरण महेश ॥३५२॥
अडिल्ल हुंडासपिणी दोष, पाप अप्रिय करै। तीर्थकर उपसर्ग, मान चक्री हरे॥ वेशठ पद जु महान, जीव उनसठ धरै। होंहि पांच पाखण्ड, विष कुल प्रादरं ॥३५३॥
करने की इच्छासे आये । उत्तम पान महाबीर प्रभु को देखकर वह चन्दना बंधन मुक्त हो गयी। पुण्योदयके प्रभावसे वह पात्र दानकी इच्छासे प्रभके पास पहुंची। वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत उस चन्दनाने प्रभुको विधि पूर्वक नमस्कार किया और बादमें
पढ़गाहा ।
उस सतीके शीलकी महिमासे कोंदोंका भात सुगन्धित एवं सुस्वादु चाबलोंका भात हो गया और वह मिट्टीका सरवा एक सुन्दर सोनेका पात्र हो गया । पुण्य कर्मका ऐसा ही आश्चर्य चकित कर देने वाला प्रभाव होता है, वह पुण्य प्रभाव असम्भव
चंदना.उद्धार बैशानी के राजा चेटक की एक पुत्री चन्दना देवी नाम की अपनी सखियों के साथ बगीचे में कीड़ा कर रही थी। उसकी मुन्दरता को देख, एक विद्याधर उसे जबर्दस्ती उठाकर ले गया और अपने साथ विवाह करना चाहा। शीलवती चन्दना जो उसके वश में न आई तो उसने उसे एक भयानक अंगल में छोड़ दिया जहां एक व्यापारी का काफला पड़ा था। चन्दना जी ने उस' व्यापारी से वंशाली का रास्ता पूछा। व्यापारी वैशाली के बहाने उनको अपने घर ले गया और उनके मनोहर रूप पर मोहित होकर उनसे विवाह कराने को कहा। चन्दना जी महाशीलघती थी बह कब किसीके बहकाने में आ सकती थी ? व्यापारी आसानी रो अपना कार्य सिद्ध होता म देखकर जबर्दस्ती करने लगा, चन्दना देवी ने उसे डांटा। व्यापारी ने कहा कि क्या तुम भूल रही हो कि यह मेरा मकान है, यहां तुम्हारी कौन सहायता करेगा? चन्दनाजी ने चोट खाये हुए शेर के समान दहाड़ते हुए कहा कि जस भी दुरी निगाह से देखा तो तुम्हारी दोनों आंखें निकाल लूंगी। व्यापारी चन्दनाजी पर जबर्दस्ती करने को उठा ही था कि चन्दना जी के शीलवत के प्रभाव से एक भयानक देव प्रकट हुआ। उसने व्यापारी की गर्दन पकड़ ली और कहा, जालिम ! अकेली स्त्री पर इतना अत्याचार? बता तुझे अब क्या दण्ड दूं? व्यापारी देव के चरणों में गिर पड़ा और गिड़गिड़ाकर क्षमा मांगने लगा। देव ने कहा, "तने हमारा कल नहीं विगाया तो हमरो क्षमा कंसी? जिस शीलवन्ती को तू सता रहा था उसी से क्षमा मांग" ! व्यापारी चन्दना जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला, "बहन ! मैं न पहचान सका कि आप इतनी महान् शीलवती हो। मुझे क्षमा करो। मैं अभी आपको वैशाली छोड़कर आता हैं। व्यापारी ही था, देव के भय से वह चन्दना जी को लेकर वंशाली की ओर तो बल दिया, परन्तु रास्ते में विचार किया जब यह अनमोल रत्न मेरे हाथों से जा हो रहा है तो बेचकर इसके दाम क्यों न उठाऊँ? वैदाखी के बजाय वह कौशाम्बी नाम के नगर में पहुंचा। उस समय दासदासियों को अधिक खरीद-बेच होती श्री। चौराहे पर लाकर पन्दना जी को नीलाम करना शुरू कर दिया। इनके रूप और जवानी को