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इहि विधि दो दो बड़तो लेख, सहस्रार लौं लहै विशेख । पानत ते बढ़ सात गनेव, षोडश लौं लीजो सब येव ॥१४६।। पचवन पल्य तहां ठहराव, अव ऊरधको सुनिये भाव । ग्रंबेयक अध देव अहिद, काय अढ़ाई हाथ प्रवन्ध ।।१४७॥ मागर तेइस आयु जघन्य, पच्चीसहि उत्कृष्ट गनिन्य । देविनि वजित सोहै सोय, सुख्य असंख्य गनै अवलोय ।।१४८।। मध्यम ग्रेवक दो कर देह, अट्टाइस सागर थिति लेह । ऊरध ग्रंबक तन कर डेढ़, इकतिस सागर आयु प्रवेद ॥१४॥ नव मवांतर देव ज काय, सवा हाथ सो है सुखदाय । बत्तिस सागर प्रायु प्रमान, अब पंचोत्तर सुनौ बखान ।।१५०॥ एक हाथ उन्नत तन दीस, सागर आयु लहैं तेतीस । सप्तम भमि नरककी देख, अवधि विक्रिया तहं लौं पेख ॥१५॥ तेतिस पक्ष लहैं उस्बास, तेतिस सहस वर्ष गत जास। मानसीक सो लैहि प्रहार, है एका अबतारी सार ।।१५।। अहमिन्द्रहके सुख्य ज भनौं, भाग असंख्य कल्प सुर गनौ । पंचोत्तरके देव विशेख, तिनले संख्य संख्य गण लेख ॥१५॥ सो सौधर्म स्वर्ग परजत, याहो विधि गन लीजो संत । अव चौदेवन संख्या जोड़, साढ़े बारह कोडाकोड़ ॥१५४|| जितने श्रद्धा पल्य वखान, तिनके नाम गुनो बुधिवान ! तितनै हैं सब देव निशंक, अट्टानव एकस अंक ।।१५५।। इहि विधि चारों गति की सीव, दुःख सुक्ख लह भटके जीव । अब गति बंध तनौं सुन भेद, जिमि नासै भव भव मन खेद ||१५६॥ जिलनी आयु जीवकी पर, पैसटसै एक सब दल कर। आठ भाग कर गासको लहै, ताके भेद सुनी अब यहे ॥१५॥
बोहा
दोय सहस अरु एकसै, और सतासी लीय। प्रथम भाग ए दल रहै, तब गति बांधहि जीव ।।१५८।। दुतिय भाग में सात सै, अर ऊपर उनतीस । दीस तेतालीस तृतिय, तुरिय, इक्यासी दीस ।।१५६।। रहे पंचमें भागमें, दल सत्ताइस प्राव । षष्टम नव सत्तम तृतिय, अष्टम एकहि ठाव ।।१६०।। शभ भावन शुभ गतिबंध, अशुभहि दुर्गतिजाय । सो भावी छटै नहीं, कीज कोट उपाय ।।१६।।
अथ इन्द्रियमार्गणा
चौपाई अव पंचेन्द्रियको सुन भेव, जदे जदे विपयनकी सेव । चाप चारस इंद्रिय फरस, चौंसठ जीभ नाकसी सरस 1॥१६॥ इन तीनों ते गुनियो संत, दुगुनं दुगुन असैनी अन्त । चतुरन्द्रियको चक्षु प्रमान, उनतिसस चौवन अधिकान ।।१६३॥ तिनत दुगुण प्रसनी चक्ष, पाठ सहस धनु श्रवण प्रतच्छ । अब सनी को विषय निरभनौ, जिहि विध जिन पागम में सूनी॥१६॥ सपरस प्रथम विषय परवान, नव जोजन लघु लहै निदान । नव रसना नव प्राण जु होय, नैन विषय आगे अवलोय ।।१६५।। सैतालीम सहस शत दोय, जोजन अंसठ अधिक जु सोय । बारह जोजन श्रवण न मनै, यह मिति क्षेत्र विषयको गुनै ।।१६६
कायमार्गणा
दोहा पांचों थावर एक त्रस, ए षट्काय गनेव । भेदाभेद अनेक विध, ग्रन्थमाहि लहि भेव ।।१६७।।
दुर्व द्धिके कारण उलटा समझता है। वह पापोंको पुण्य समझ कर उनका आचरण करता है और अनेक प्रकार के कष्टों को पाकर दुखित होता है। ऐसे लोग इस संसार रूपी महाघोर बनमें सदैव भटका ही करते हैं। जो कि तप, श्रत एवं व्रतोंसे युक्त होने पर भी प्रात्म-स्वरूप एवं परस्वरूप का अच्छी तरह विचार नहीं कर पाता वह आत्म-ज्ञानसे वंचित है। इसलिये बुद्धिमानों को उचित है कि इन बहिरात्माओं के संसर्ग से सदैव बचा रहे बहिरात्मा जघन्य पथके पथिक होते हैं, स्वप्न में भी इनका
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