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साढ़े बारह दिन जब जांहि, मनसाहार लंहिं मुख नादि । नेत्र तिर 'जोन इन कोड, देव र दूलिका छोड़।।११।। तिन देवन जिय राशि बखान, असंख्यात गुण को परवान । अव व्यन्तर हैं अष्ट प्रकार, (वि) मानसंख्याते निरधार ।।१२०॥ प्रथम हि शुभ परिणाम हि जान, साढे चार जाति परवान । किनर अरु किपुरुष जु दोय, मनोरंग गंधर्व हि सोय ।।१२।। प्राधे यक्ष सबै शुभ कहे, अशुभ प्रमाणी प्राधं लहे। राक्षस भूत पिशाच य सर्व, यहै अष्टविध व्यन्तर गर्व ॥१२॥ एक एल्य उत्कृष्टी प्राव, दश साहस्र जघन्य लखाव । सब दश धनुषाहि व्यन्तर काय, विक्रियधरै भवन दर चाव॥१२३।। नेत्र विषय जोजन पच्चीस, साड़े वसु दिन भोजन कीस । असख्यात जियराशि प्रमान, अव ज्योतिष देवन पहिचान ॥१२४|| मुर्य चन्द्र ग्रह नम्बत जुतार, सप्त धनुष की काय विचार । आयु पल्य दो हैं उतकिष्ट, वरष सहस दश कही कनिष्ट ॥१२५।। साढे सात दिबस गत जब, मनसा हार लेई जो सबै। नेत्र विषय जोजन संख्याय अघ ऊरध सब देख गात ॥१२६।। ज्योतिष देव जीवकी राशि, असंख्यात गुण जिनवर भासि । देविन सहित भोग भोग, भवनत्रिकको यह संजोग ।।१२७।।
कल्पवासी देव वर्णन
सौधर्मा ईशान जु दोय, काय प्रमान सप्त कर होय । आयु दोय सागर उतकृष्ट, सागर एक कही जु कनिष्ट ॥१२॥ काया सौ सुख भुगतै जास, दोय पक्ष गत लेय उसास । दोय सहस वरष जब जाहि, मानसोक साहार कराहि ।।१२६।। प्रथम नरक लो बिक्रिय लहैं, तहां प्रमाण अवधि सरदहै। सनत्कुमार महेन्द्र बखान, छ कर उन्नत तन उन्मान ।।१३०॥ सागर सात जु अायु लहेव, असपरशत सुख काम भनेव । सात पक्ष बीते उच्छ्वास, सात हजार वर्ष गत जास ॥१३॥ मानसीक तब लेइ प्रहार, नोजे नरक विक्रिया पार । ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर देव, दश सागरको थिति ले तेव ॥१३२।। साढ़े पांच हाथ की देह, रूप देख माने सुख नेह । पांच मास पर लह उसास, वर्ष सहस दश भोजन आस ।।१३३|| चौथे नरक विक्रिया गहै, उनहोलौं ज अवधिको लहैं । लान्तव अरु कापिष्टहि अंत, चौदह सागर आयु घरंत ॥१३४॥ पांच हाथको धरै शरीर, रूप देख सुख मानं बोर। सात मास गत लैहि उसास, चौदह वरष सहस छह जास ॥१३॥ पंचम भूमि अबधि कर शेष, धरै विक्रिया ताहि विशेष । शुक्र महाशक्र सुर ईश, सोरह सागर आयु सरीश ॥१३६।। साढ़े चार हाथ तनु धार, शब्द शब्द कर सुख अनुसार । सोरा पक्ष उसासहि धार, सोरा सहस वर्ष आहार ।। १३७॥ पंचम नरक तन बिक्रिया, तितही लौ जु अवधि धर लिया । शतार सहस्रार दै जान, अष्टादश सागर थिति मान ।।१३८॥ शब्द सुख्यको सदा लहेब, चार हाथ तन धरै ज देव । नमै मास उच्छवासहि धार, सहस प्रकारा वर्ष में अष्टम नरक बिक्रिया कही, अवधि सहित देखें सब सही। प्रानत प्राणत सुर दो सार, सागर वीस आयु तहं धार ।।१४०।। साढ़े तीन हाथ वपु लेह, मनकी उमंग सुख्यको नेह । वीस पक्षगत श्वासा वहै, बीस सहस, वष भोजन लहै ।।१४।। षष्ठहि नारक विक्रिया लहै, तहां प्रमान अवधिको गहै। आरण अच्युत कल्पाहि जान, बाइस सागर प्रायु प्रमान ॥१४२।। तीन हाथ वपु सोहै तेह, मनमें सुख्य धरें अति नेह । वाइस पक्ष गहै उच्छ्वास, बाइस सहस वर्ष जब नाश ।।१४३।। मनसा भोजन लेइ जु सोइ, षष्टहि नरक बिक्रिया जोइ । उतही लौं जु अवधिको जान, अब देदिन थिति सुनौ प्रमान ।।१४४॥ सौधर्म हि देविनकी पाव, पंच पल्य उतकृष्ट हि ठाव । ईशानहिकी सातौं पल्य, सनत्कुमार माहि नौ पल्य ।।१४।।
गुण, अगुण, सुगुरु कुगुरु, पाप-धर्म, शुभ अशुभ, जिनशुभ-कुशास्त्र, देव-कूदेव, एवं हेय उपादेयको विश्लेषण क्रिया करके परीक्षामें असमर्थ एवं विचार हीन है। जो कि बिना विचारके ही अपनी इच्छाके अनुसार सब वस्तुओंको ग्रहण कर लेता है वही मूर्ख पहला बहिरारमा है । ग्रहण किया गया पदार्थ असत्य हो अथवा सत्य हो। जो जड़मति महाविषके समान नाशकारी विषय जन्य सुखको ग्राह्य समझकर सेवन करता है वही बहिात्मा है। जो बुद्धिहीन जड़ शरीर एवं चैतन्य रूप जीव को परस्पर सम्बद्ध हो जाने से एक ही मान लेता है वह ज्ञानसे बहुत दूर है-निरामुख है और कुछ भी नहीं जानत' बहिरात्मा जीव अपनी