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मनुष्यगति वर्णन नरगति भेद कहीं कछु तेह, द्वीप पढाई में उपजेह । भोगभूमि उत्कृष्ट बत्रान, उपजें जुगल सदा तिहि थान ११० तीन कोश की काय घरेह, तीन पल्यकी आयु धरेह । तीन दिवस में लेइ प्रहार, बदरी फलवत नहीं निहार ।।१०।। मध्यम भोगभमि नर बसे, दोय कोशको वा धर लसं । दोय पत्य जी तस प्राव, दोय दिना गत भोजन भाव।।१०३।। जघन्य भोगमि सब नरा, एक कोश को तन जहं धरा । एक पल्यको थिति है तेह, नितप्रति भोज कलप बक्षेह ॥१०४।। और कूभोगभमि नर कहै, पशुवत मुख सबके सरदहै । भोग भूमिवत प्रावरु काय, मृतिका भोजन लहैं सवाय ।।१०।। स्वाद शर्कराबत तस जान, अविवेकी हिरदै नहि मान । विदेह सर्व कर्म भू थान, काय पंचशत धनुष प्रमान ॥१०६।। सदा शाश्वते मन्दिर बसें, धन कन पूरन सब सुख लसैं । दिन प्रति भोजन षटरस वहैं, आयु कोटि पूरब की लहैं ।।१०७।।
दोहा सत्तरलाख छप्पन सहस, इतने कोडाकोड़ि | एक कोड़ पूरब वही, अंक इकीसह जोड़ि ।।१०८।।
चौपाई आरजखण्ड काल पट बह, सुखदुख कर पूरन निर्वहै । तीन कोश उस्कृष्ट, सु देह, एक हाथ को जघन भनेह ।।१०।। तीन पल्य आयु उतकृष्ट, षोडश वर्ष हि कनिष्ठ । सकल म्लेच्छनमें नर होइ, धर्म विना नहि सुखदुख जोइ ।।११०।। पायु कायको यह परवान. भरत रावत प्रार्य समान । म्लेच्छ विदेहनमें जे लेख, काय प्रायु उनहीं सम पेख ।।१११॥
चौपाई भोगभूमि त्रय काल त्रय, चतरथ काल विदेह । पंचम काल म्लेच्छ सब, छट्ठम नारक तेह ।।११।। प्रारज दश सब मांहि में, वरतं छह काल । घट बढ़ बढ़ घट देहि थिति, लहै बहुत जंजाल ॥११३।।
दोहा संख्या सब नर जीवन सुनौ, गर्भज संमूच्र्छन दुर भनौ। गर्भज नर सबको परमान, कल्पभाग सौ तिहि उनमान ॥११४॥ ताके अंक उत्तीस हि जोह, तामें नारी भाग ज दोय । एक भाग है पुरुष निदान, तेही में जु नपुंसक जान ।।११।।
उक्तं च गाथा सत्तादि णवहि दो दो, अट्ठक छक्क दोण्णि पंचेक्कं । चद् दुग छक्क चदुरी, तिय तिय सत्तं तहा पणगं ।। णव तिणि पंच चदुरौ, तिणि तहा णब य पंच सुण्णं च । तिय तिय छक्कं च तहा, मणस्सरासीपमाणं तु ।।
(७६२२८१६२५१४२६४३३७५६६५४३६५०३३६) सम्मछन नरको उन्मान, कहै जिनागम संख्य प्रमान । यह संक्षेप मनुषगति जान, अब देवन का करौं बखान ।।११६।।
देवगति वर्णन भवनाबासी दश विधि थान, असुर कुमार प्रथम पहिचान | काय धनुष पच्चीस उत्तंग, तुर्य नरकली विक्रिय अंग ।।११७।। अब नब भवन तनौं सुन भेव, काय धनुष तन उन्नत लेव । तीन पल्य सब उतकिठ प्राव, और जघन्य सहस दश ठाव ॥११८॥
मीठे दूध को पीकर भी महा विषैला काला सांप अपने स्वाभाविक विषको नहीं छोड़ सकता उसी तरह अभव्य भी पागम रूपी प्रमतको पान करके मिथ्यात्व को नहीं छोड़ता। अतः शेष तेरह गणस्थान पार्श्ववर्ती भव्यों के ही हो पाते हैं। अभव्य एवं दरवर्ती भव्योंको कदापि नहीं होते। इस प्रकार श्रीमहावीर प्रभने जीवतत्वकी व्याख्या पहले तो आगम (पारमाथिक) भाषामें की। पूनः उसी तत्व उपदेशका व्याख्यान आध्यात्म व्यवहारिक भाषामें उन्होंने किया । बहिरात्मा, अन्तरात्मा और आत्मा ये तीन प्रकारके जीव, गुण और दोष की अपेक्षा के लिए कहे गये हैं । बहिरात्मा वही है जो जोब तत्त्व अतत्त्व