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प्रत्येकाहि साधारण सोय, प्रत्येकहि वृक्षादिक होइ। सप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जान, सूप्रतिष्ठित उपजे तिहिथान ॥७७।। तिनमें राशि निगांद जु होय, सुप्रतिष्ठित जानो तह साय। साधारण निगोद दो जान, इन सूक्ष्म बादर सब थान ।।७।। नित्य निगोद गोलकन पंच, जोवराशि जानो सब संच । अव सुन भोगभूमि पर कहो, और कुभोग भूमि में लहौ ।।७।। पुष्करा ते बाहिर जान, दोप असंख्य सबै परवान । सैनी पंचेन्द्रिय तिरजंच, जलचर नभचर दोय सदंच ।।।। जलचर इन थानक माहि कही, विललव्य नहि सही। बसती प्रतिष्ठत होय, विन निगोद तरु कल्प संजोग ।।१॥ सक्ष्म पंच थान वरजेइ, तीन लोक सब थानक तेइ। सबको तिथि उत्कृष्ट बखान, तीन पल्य पंचेन्द्रिय जान ।।८।। चौ इन्द्रिय छह मास जु कहो, ते इन्द्रिय दिन उनचास ही। बारह वरष द्विइन्द्रिय लहै, अब एकेन्द्रिय थिति का कहैं ।।३।। वाइम सहम वर्ष पृथिवीय, सात हजार जलहिको लोय । तोन दिना हे अगिन जु आव, तोन हजार वायु को थाव ।।४।। वनस्पति प्रत्येक बखान, दश हजार वरपे थिति जान । यह उत्कृष्ट प्रायु परमान, अव जघन्य सबको उनमान ||५|| अन्तमुहुरत लौं थिति रंच, पृथिवी उ साधारण पंच । बादर सूक्ष्म दशहि परवान, प्रत्येक हि गेरम पहिचान ।।६।। छह हजार बारह धर शीस, छयासट सहस इकसै बत्तीस । विकलय जु प्रसनी दीस, असी साठ चालिस चौबीस ॥७॥
शरीर की अवगाहना का वर्णन
छयासट सहस त्रयसै छत्तीस, जन्ममरण भाष्यो जगदीश । काय भेदु अव सुनहु सुजान, मच्छ सहस जोजन परबांन ।1८|| जोजन एक भ्रमर तन कर, तीन कोशको कानखजर। बारह जोजन शंखहि धार, अर एकेन्द्रिय काय विचार ||६|| पृथिवी जल प्रत्येक ज दोय, असंख्यात जोजन अव लोय। अग्नि पबनकी देह ज कही, किचित ऊन लोक भर लही ||६०॥ यह उत्कृष्ट काय परमान, अब जघन्यको करौं बखान । शालिसिथ मच्छहि लघुरूप, मक्षिकादि चौइन्द्रिय नप ॥शा कुन्थु आदि ते इद्रिय जान, अनधरिया दो इन्द्रियवान । मंगुल एक असंख्य जु भाग, पृथिवी चौक बनस्पति साग ।।१२।। पृथिबी जीव मसूर अकार, जल को रूप बूद सम धार । सुईवत तेजहि की है काय, ध्वज प्राकार शरीर जवाय ।।१३।। तर प्रत्येक हि भेद अनेक, साधारण सुक्षम वा रोक । अब सब जीवनि संख्या जान जैसो जिन शासन पहिचान ॥१४|| असंख्यात पंचेन्द्रिय पशु, तिनमें संख्य असैनी लसु । लिन ही ते चौइन्द्रो जीव, संख्य गुनै तारि कर लीव ||५|| जिनते संख्य गुन ते अक्ष, तिनत संख्य गुणे वे अक्ष । एकेन्द्रिय को पृथिवी चौक, संख्य संख्य गुन क्रम को थोक ॥१६॥ वनस्पति प्रत्येक बखान, सब देवन सम संख्या जान । तिनतं नंत गुनं पहिचान, साधारण ईतर जिय जान ॥६॥ सिद्धा सर्व अनंतानंत, सोहैं तीन लोक के अन्त । तिनहि अनन्तानन्त, गुनेह, नित्य निगोद एक वपु तेह ॥६॥ इक बपुतै सब गोलक जीव, नन्तानंत तहां जु सदीव । तिनके भाग अनन्तानन्त, थिर संसार अभव्य वसन्त ॥६॥ तिनहिं अनंत भाग में जान, भव्यजीव शिव लहैं निदान । सिद्ध नंतता बड़े नहि कदा, राशि निगोद घटै नहि सदा ॥१०॥
ज्ञान हैं। शुभ एवं अशुभ रूप छ: प्रकार को लेश्याएं हैं। भव्य एवं अभव्यके भेदसे दो प्रकारके जोव छ: प्रकार के सम्यक्त्व हैं। संज्ञी एवं असंज्ञी भेदसे दो तरहके और आहारक एवं अनाहारक भेद से भी दो प्रकार के जीव हैं । इस प्रकारसे चौदह प्रकारके मागंणा (अन्वेपथ-पथ) कहे गये हैं। सांसारिक जीवों को इन्हीं चौदह मार्गणाओं में दर्शन विशुद्धिके लिए ज्ञानियोंको खोजते रहना चाहिए। जिनेन्द्र महावीर प्रभने मिथ्यात, सासादन, मिश्र, अविरत, देश संयत, अप्रमत्त, अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवत्ति करण, सूक्ष्म सांपराय उपशांत कषाय, क्षीण कषाय सयोगि जिन इन चौदह गण स्थानोंको बिस्तार पूर्वक वर्णन किया। इन्हीं चौदहों गुण स्थानों के द्वारा भूतकालमें भव्य जीवोंने निर्वाण पदको प्राप्त किया है वर्तमान काल में प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य कालमें भी प्राप्त करेंगे । मोक्ष प्राप्ति का और कोई अन्य मार्ग नहीं है। ग्यारह अंगों के अर्थों को जान जाने पर एवं अभव्यके सदेव दीक्षित हो जाने पर भी पहले मिथ्यात्व गण स्थान ही प्राता है, अन्य नहीं। जिस प्रकार कि मिश्री मिले हुए
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