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समकित सैनि अहार ए, मारगणा दश चार । गुणस्थान चौदा अवर, जिय समास पुनि धार ||५८|| परजापति प्राणन सहित. संज्ञा अरु उपजोग । ध्यान जु प्रत्यय जाति, कुल सब चौबीस नियोग ।।५।।
गतिवर्णन
चौपाई
चारों गति में भटकै जीव, पापकर्म नारक दूख लीव । पुनि तिरंजच सु है तृष भूख, मानुषको बहु मुख दुख ऊख ।।६।। शुभ भावन ते सुरगति पाय, इहि विधि भ्रमैं जगतमें जाय । अब नारक गतिको सुन भेद. जिम भविजन नार्ग भ्रम खेद ।।६।।
नरकगति वर्णन अधोलोक में नरक जु सात, तहां मारको जिय उतपात । प्रयमहि काल नरक तन लहै, पीन पाठ धनु अंगुल छहै ।।६।। सागर एक अायु उतकिष्ट, दश हजार ली कहो कनिष्ट । उष्ण स्वभाव रहै तिहि थान, सहैं वेदना वे परमाल ।।६३।। महाकाल दूजो तब धार, साद पन्द्र धन अंगुल वार। सागर तोन प्रायु गर्न लेइ, उष्ण स्वभाव सदा दुख देइ ।।६४।। रौरव तृतीय नरक दुख एह, सवा अधिक त्रिशत धनु देह। सागर सात आयु परवान, उष्ण महा है दुख कः खान ॥६५॥ तुरिय महारौरव दुख सहै, साढ़े बासट धनु तब लहै। महाउष्णता कहो न जाय, सागर दश थिति है अधिकाय ॥६६॥ शालमीक पंचम दुख घनी, धनुष सवास तनु तहँ बनौ। सत्रह सागर का पिति लहै, उष्ण शांत दोऊ विध राहै ।।१७।। असिक पत्र छटम दुख देइ, धनुष अढाइस तन् लेइ । बाइस सागर यायु लहाय, शोत तहां व्याचे अधिकाय ॥६॥ कुम्भीपाक सप्तमौ भनौ, धनुष पांचस तनु तह बनौं, । तेतिस सागर को तिथि जहां, शोत महा तन पोड़हि तहा ।।६।। सप्तम नरक नरकिया जीव, तिनको संख्यासंख्य गनीव । तिनत छट्टम नरक गर्नेह, संख्य गुनै सब जानहु तेहूँ ।।७।। तिनत पंचम भूमि प्रमान, संख्य गर्न लीजी पहिचान । चौथे दुतिय तृतीय पहलेह, ऐर ही सब जिय गन नेह ।।७।। प्रथम नरक में जो दुख लहै, लिहित दुगुन दुगुन है कहै । सकल भेद पूरव वरनयो, पुनर उक्ति ते नाही भयो ।।७२॥
दोहा सात नरकके जानिये, पटल सकल उनचास । तिनमें उपजै नारकी, विले लाख चौरास ॥७३॥
तिर्यचति वर्णन
चौपाई अब सब पशुगति को सुन भेव, जो भाष्यो है श्रो जिनदेव । दोऊ समुद कर्म भूमाहि, क्षेत्र एकसै सत्तर माहि ॥७४।। आधे चरम द्वीपके अन्त, संभू रमण उदधि परजंत । सैनी पंचेन्द्रिय तिरयंच, पीर असनी-मन नहि रंच ||७५।। जलचर नभचर थलचर होइ, अरु विकलत्रय उपज सोइ । पथियो पानो तेज सु बाय, बनस्पति दुइ भेद लहाय ।।७६।।
इसी प्रकार अनेक जीव जातियोंके अठानवे भदादिको श्रीमहाबोर प्रभुने गौतमादि गणधरांसे कहा। पृथ्वी, जल, अग्नि वायु काय एवं नित्य-निगोद और इतर निगोद के भंद से दो प्रकार के साधारण बनस्तति ये छहों प्रत्येक पृथक्-पृथक् सातसात लाख, दस लाख प्रत्येक वनस्पति, छ लाख विकलेन्द्री पंचेन्द्री तियंढच और नारकी देव बारह लाख, तथा चौदह लाख मनुष्योंकी जातियां हैं। सब मिलाकर चोरासी लाख योनियां हुई। इन जाबों के करोड़ों कूल हैं। इस बातको भी श्रीमहावीर प्रभु ने गणधरों तथा उपस्थित जीव समूहों से कहा । चार गति, पांच इन्द्रिय मार्गणा और छ: काय मिलकर पंद्रह योग हुए। स्त्री वेद प्रादि तीन वेद हैं । अनन्तानुबंधी क्रोध आदि पच्चीस कषायें हैं । पांच सुज्ञान एवं तीन कुज्ञान मिला देने से आठ प्रकारके