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निरूपण स्वीकृत नहीं किया क्योंकि वह कपोतलेश्या के महात्म्य से इन तीन दानों के सिवाय और ही कुछ दान देना चाहता था।
उसी नगर में एक मूर्तिशर्मा नाम का ब्राह्मग रहता था। वह अपनी बुद्धि के अनुसार खोटे-खोटे शास्त्र बनाकर राजा को प्रसन्न किया करता था। उसके मरने पर उसका मुण्डशालायन नामक पुत्र रामत शास्त्रों का जानने वाला हुआ। उस समय वह उसी सभा में बैठा था अतः मन्त्री के द्वारा पूर्वोक्त दान का निरूपण समाप्त हाते हो कहने लगा। कि वे तीन दान मुनियों के लिए अथवा दरिद्र मनुष्यों के लिए हैं । बड़ी-बड़ो इन्छा रखने वाले राजाओं के लिए तो दूसरे ही उत्तम दान हैं। शाप अनुग्रह करने की शक्ति से सुशोभित ब्राह्मणों के लिए, जन तक चन्द्र अथवा सूर्य हैं तब तक यश का करने वाला पृथ्वी तथा सुवर्णादि का बहुत भारी दान दोजिए। इस दान का समर्थन करने वाला ऋषिप्रणात शास्त्र भो विद्यमान है, ऐसा कहकर वह अपने घर से अपनी बनाई हुई पुस्तक ले आया और सभा में उसे बत्तवा दिया। इस प्रकार अभिप्राय को जानने वाले मुण्डशालायन ने अवसर पाकर कुमार्ग का उपदेश दिया पोर राजा ने उसे बहुत माना-उसका सत्कार किया। देखो, मुण्डशालायन पाप करता था, अभद्र था, विषयान्त्र था ओर दुर्बुद्धि था फिर भो राजा परलोक को बड़ो भारो पाशा में उन पर अनुरक्त हो गया–प्रसन्न हो गया। किमो समय कार्तिक मास पौर्णमासी के दिन उस दुर्बुद्धि राजा ने शुद्ध होकर बड़ी भक्ति के साथ अक्षतादि पूजा द्रव्यों से मुण्डज्ञालायन को पूजा कर उसे उसके द्वारा कहे हुए भूमि नया सुवणीदि के दान दिये। यह देख भक्त मंत्रों ने राजा से कहा । अनुग्रह के लिए अपना धन या अपनी कोई वस्तु देना सो दान है एसा जिनेन्द्र भगवान ने वाला है और इस विषय के जानकार मनुष्य अपने तथा पर के उपकार का हो अनुग्रह कहते हैं। पुग्ध कर्म को वृद्धि होना पर का उपकार है।
___स्व शब्द धन का पर्यायवाची है। धन का पात्र के लिए देना स्व दान कहलाता है । यही दान प्रशंसनीय दान है फिर जानते हए भी प्राप इस प्रकार कुपात्र के लिए चन दान देकर प्राप दाता, दान और पात्र तीनों को क्यों नष्ट कर रहे हैं। उत्तम बोज कितना ही अधिक क्यों नहा, यदि दूसरजपोन में डाला जायेगा तो उसने सकनेश आर बाज नाश-रूम फल के सिवाय और क्या होगा? कुछ भी नहीं। इसके विपरीत उत्तम वोज थोड़ा भी क्यों न हो, यदि संयम का जानने वाले मनुष्य के द्वारा उत्तम क्षेत्र में बोया जाता है तो बाने वाले के लिए उससे हजार गुना फल प्राप्त हाता है । इस प्रकार उस बुद्धिमान एवं भक्त मन्त्री ने यद्यपि करोड़ों उदाहरण देकर उस राजा को समझाया परन्तु उससे राजा का कुछ भी उपकार नहीं हुअा। सो ठोक ही है क्योंकि विपरीत बुद्धिवाले मनुष्य के लिए सत्पुरुषों के वचन ऐसे हैं जैसे कि काल के काटे के लिए मंत्र, जिसको आयू पूर्ण हो चक्री है उसके लिए अोपथि, पीर जन्म के अन्धे के लिए दर्पण । उस कुमार्गगामा राजा ने प्रारम्भ से ही चले पाये दान के मार्ग को छोड़ कर मूर्ख मुण्डशालायान के द्वारा कहे हुए आधुनिक दान के मार्ग को प्रचलित किया। इस प्रकार लाकर वस्तुओं के लोभी, मूर्तिशर्मा के पुत्र मुण्डशालायान ने श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र के तीर्थ के अन्तिम समय में दरिद्रों को अच्छा लगने वाला-कन्यादान, हस्तिदान, सुवर्णदान, अश्वदान, गोदान, दासोदान, तिलदान, रथदान, भूमिदान और गहदान यह देश प्रकार का दान स्वयं ही अच्छी तरह चलाया।
भगवान श्रेयान्सनाथ जो प्राश्रय लेने योग्य हैं उनमें श्रेयान्सनाथ को छोड़कर कल्याण के लिए विद्वानों के द्वारा और दूसरा माश्रय लेने योग्य नहीं है. इस तरह कल्याण के अभिलापी मनुष्यों के द्वारा प्राश्रय करने योग्य भगवान् श्रेयान्सनाथ हम सबके कल्याण के लिए हों। पूरकरार्ध द्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेह क्षेत्र के सुकच्छ देश में सीता नदी के उत्तर तट पर क्षमपुर नाम का नगर है। उसमें समस्त दुष्ट शवों को नम्र करने वाला तथा प्रजा के अनुराग से प्राप्त अचिन्त्य महिमा का याश्रयभूत नलिनप्रभ नाम का राजा राज्य करता था । पृथक्-पृथक् तीन भेदों के द्वारा जिनका निर्णय किया गया है ऐसी शक्तियों, सिद्धियों पौर उदयों से जो अभ्युदय को प्राप्त है तथा शान्ति और परिश्रम से जिसे क्षेम और योग प्राप्त हुए हैं ऐसा यह राजा सदा वढ़ता रहता था। वह राजा न्याय पूर्वक प्रजा का पालन करता था स्नेह पूर्ण पृथ्वी को मर्यादा में स्थित कर उसका
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