________________
भूभुत्यपना सार्थक था।
समीचीन मार्ग में चलने वाले उस श्रेष्ठ राजा में धर्म ही था, किन्तु अर्थ तथा काम भी धर्म-युक्त थे। अतः वह धर्ममय ही था। इस प्रकार स्वकृत पुण्यकर्म के उदय से प्राप्त सुख को खान स्वरूप यह राजा लोकपाल के समान इस समस्त पृथ्वो का दीर्घकाल तक पास करता रहा पिन नापास से उसे मालम हुआ कि सहस्रान वन में अनन्त जिनेन्द्र अवतीर्ण हुए हैं तो वह अपने समस्त परिवार से युक्त होकर सहनाभवन में गया। वहां उसने जिनेन्द्र देव की पूजा की, चिरकाल तक स्तुति की, नमस्कार किया और फिर अपने योग्य स्थान पर बैठ गया । तदनन्तर धर्मोपदेश सुनकर उसे तत्वज्ञान उत्पन्न हुआ जिससे इस प्रकार चिन्तवन करने लगा कि किस का कहीं किसके द्वारा किस प्रकार किससे और कितना कल्याण हो सकता है यह न जान कर मैंने खेद-खिन्न होते हुए अनन्त जन्मों में भ्रमण किया है। मैंने जो बहुत प्रकार का परिग्रह इकट्ठा कर रखा है वह मोह वश ही किया है इसलिये इसके त्याग से यदि निर्वाण प्राप्त हो सकता है, तब समय बिताने में क्या लाभ है ?
ऐसा विचार कर उसने गुणों से सुशोभित सुपुत्र नामक पुत्र के लिए राज्य देकर बहत से राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया । ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, तीर्थकर नाम-कर्म का बन्ध किया और आयु के अन्त में समाधिभरण कर सोलहवें अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में अच्युत नाम का इन्द्र हुमा। वहा बाईस सागर प्रमाण उसकी आयु थी, तीन हाथ ऊंचा शरीर था, और ऊपर जिनका वर्णन पा चुका है ऐसो लेश्या आदि से सहित था। दिव्य भाथों को धारण करने वाली सुन्दर देवियों के साथ उसने बहुत समय तक प्रतिदिन उत्तम से उत्तम सूखों का बड़ी प्रीति से उपभोग किया। कल्पातीत-सोलहवें स्वर्ग के आगे के अहमिन्द्र विराग हैं- · राग रहित है और अन्य देव' अल्प सुखवाले हैं इसलिये संसार के सबसे अधिक सुखों से संतुष्ट होकर वह अपनी प्रायु व्यतीत करता था। वहां के सुख भोगकर जब वह यहाँ पाने के लिए उद्यत हुआ तब इसी जम्बद्वीप के भरत क्षेत्र में सिंहपुर नगर का स्वामी इक्ष्वाकु वंश से प्रसिद्ध विष्णु नाम का राजा राज्य करता था। उसको बल्लभा का नाम सुनन्दा था। सुनन्दा ने गर्भधारण के छह माह पूर्व से ही रलवृष्टि आदि कई तरह की पूजा प्राप्त की थी।
ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी के दिन श्रवण नक्षत्र में प्रात:काल के समय उसने स्वप्न तथा अपने मुख में प्रवेश करता हग्रा हाथी देखा । पति से उनका फल जानकर वह बहुत ही हर्ष का प्राप्त हुई। उसी समय इन्द्रों ने आकर गर्भ-कल्याणक का महोत्सव किया। उत्तम सन्तान को धारण करने वाली सुनन्दा ने पूर्वोक्त विधि से नौ माह बिता कर फाल्गुन कृष्ण एकादशी के दिन विष्णयोग में तीन ज्ञानों के धारक तथा महाभाग्यशालो उस पुत्र को उत्पन्न किया जिस प्रकार कि मेघमाला उत्तम बष्टि को उत्पन्न करती है। जिस प्रकार शरद-ऋतु के प्राने पर सब जगह के जलाशय शीघ्र हो प्रसन्न स्वच्छ हो जाते हैं उसी प्रकार जनका जन्म होते ही सब जीवों के मन प्रसन्न हो गये थे-हप से भर गये थे। भगवान का जन्म होने पर यातक लोग धन पाकर पित हए थे, धनी लोग दीन मनुष्यों को संतुष्ट करने से हर्षित हुथे थे और वे दोनों इष्ट भोग पाकर सूखो हये थे। उस समय सब जीवों को सुख-देने वाली समस्त ऋतुए मिलकर अपने-अपने मनोहर भावों से प्रकट हुई थीं।
बड़ा आश्चर्य था कि उस समय भगवान का जन्म होने पर रोगी मनुष्य नीरोग हो गये थे, शोकवाले शोकरहित हो गये। थे । जब उस समय साधारण मनुष्यों को इतना संतोष हो रहा था तब माता-पिता के संतोष का प्रमाण कौन बता सकता है ? शीही चारों निकाय के देव अपने शारीर तथा प्राभरणों की प्रभा के समूह से समस्त संसार को तेजोमय करते हए चारों ओर से आ गये । मनोहर दुन्दुभिया बजने लगी, पुष्पवर्षाए होने लगी, देव-नर्तकिया नृत्य करने लगी और स्वर्ग के गवैया मधुर गान गाने लगे । 'यह लोक देव लोक है अथवा उससे भी अधिक वैभव को धारण करने वाला कोई दूसरा ही लोक है। इस प्रकार देवों के शब्द निकल रहे थे। सौधर्मन्द्र ने स्वयं उत्तम आभुषणादि से भगवान के माता-पिता को संतुष्ट किया और इन्द्राणो ने माया से माता को संतुष्ट कर जिनबालक को उठा लिया।
श्री धरणेन्द्र जिन-बालक को ऐरावत हाथी के कन्धे पर विराजमान कर देवों को सेना के साथ लोला-पूर्वक महा
२३७