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aasों का परिचय
पूजे
सर चकति जान वर्तमान पूर्व भगवान || २६५|| कुमार कहे विनि पोहे ॥१२८६॥
प्रथम भरत चकों को नाम प्रथमहि जिन वारे अभिराम मना तृतिय हुए, धर्मनाथ जिन शिव जब गये शांतिनाथ जिन को आय, सो पंचम पद भविजन जाय तिनही कछु काल रामाद, भ्रष्टम कि सुमोम कहाई मुनिसुतक काल व्यतीत दशम कि हरिण
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पष्ठम कुन्थुनाथ चक्रेश, अरहनाथ सप्तम अवनेश ॥ २८७॥ मल्लिनाथ शिव गम बहुकाल, महापद्म नमचक्र विधान ॥२ जिव नृप ॥ २८६॥ ठये
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पास जिनेश्वर के व्रत मान, ब्रह्मदत्त द्वादशम बखान । अब बल हरि प्रतिहरिके नाम, नारद जुन बरणों अभिराम ॥ २६०॥
अथ बलभद्र नारायण और प्रतिनारायणां और नारदों का परिचय
श्री येयांसनाथ व्रतमान प्रथम विजय बलदेव बखान हरि त्रिपृष्ठ तिन भाजु तिन सम्बन्धी नारद श्रीम. सुनित तर्ज प्रत सीम वासुपूज्य जिनवर के समं, हरिद्विपृष्ठ तारक प्रतिहरि, महाभीम नारद पद घरी । विमल जिनेश्वर बारे जोइ,
प्रतिहरि तह होइ ॥ २९१॥ पर अचल दुतिय जगनमे ||२२|| धर्मवली तोजो पद सोइ ||२३|| पुन अनंत जिन बारे भये सुत्र बलि चोये वरनये ॥२९४॥ ठर धर्मनाथ वारेन और ॥ २६५ महारुद्र है नारद निशुम्भ प्रतिहरो षष्ठम आनंद बल
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हरिजु स्वयंभू गुणहि समुद्र, मेरक प्रतिहरि नारद । पुरुषोत्तम हरि तिनके भ्रात मधु-कैटभ प्रतिहरि भणदात नाम सुदर्शन पंचमी पुरुषसिंह नारायण मिली। अरहनाथ बहु कालहि गये, अरु सुभौम चक्रीके भये । पुन प्रतिहार प्रहलाद जु मये, महाकाल नारद वह ये
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सुजान फाल नाम नारद पहिचान ॥२६॥ उपजे पुण्डरीक नारायण तेह ॥ २६७॥ मल्लिनाथ जिन किंचित काल, नन्दमित्र सप्तम यति हाल ।।२१६|| श्रीदत्त ही विख्यात बलि प्रतिहरि को कीनों घात । दुर्म ुख नारद नाम कहाय, अधिक प्रपंची ऋषिपद थाय ॥ २६६॥ गुनिसुव्रतन विपद गये, पुनि हरिषेण चक्रवति भये तिनही कछु काल गमाद, अष्टम रामचन्द्र यत भाइ ॥ ३००॥ लक्ष्मण नारायण पद जान, प्रतिहरि रावण प्रगट बखान । नरमुख नारद नाम कहाय, विद्याबल बहु करें उपाय ।। ३०१ ॥ नेमीनाथ जिन वारं भये, हलधर पद्य नवम वरनये । कृष्ण नारायण जग परधान, जरासंघ प्रतिहरि उन्नत मुख नारद तिहि थान, ग्रव एकादश रुद्र बखान । भोम प्रथम शंकर जानिए, प्रथमहं जिन बारे ११ों का परिचय
पहिचान ॥ ३०२ ॥ मानिये ॥ ३०३ ॥
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उतपतो ॥ ३०४ || समुद्र ।।३०४॥
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बल दुजे रुद्रहि को नाम, अजितनाथ बारे बलिराम । जित शत्रु हि तोजे पशुपतो, पुरुपदंत बारं विश्वानन चीयो शिव जान, शीतल जिन समय पहिचान व धर्म सुप्रतिष्ठ कु रुद्र, पंचम है पाप वासुपूज्य जिन वारं यं अचलरुद्र ष्ठम वर नये । विमलनाथ के समय कहूँ, तुण्डरीक शिव सप्तम लहे ॥ ३०६ ॥ नाहि, रुद्र पंक्ति पर अष्टम ताहि शान्तिनाथ जिन समं सुजान, पियोत्तम शिवम बखान
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धर्म जिने के व्रतमान जितनामि हि शंकर पहिचान ।। ३०७ || पुनः सात्यकि स्थान सु नाम, एकादशम वार जिन ठाम ॥ ३०८ ॥
इसीसे सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति हो सकती है। मेरे हृदय में जो दर्शनमोह यानी मिथ्यात रूपी निबिड़तम अन्धकार व्याप्त था वह प्रभुके उपदेशरूपी तेजस्वी किरणोंसे शीघ्र ही नष्ट हो गया और अब वहां एकदम प्रकाश सा जान पड़ रहा है। ऐसा सोचकर वह विवि गीतम धर्म एवं धर्मके उत्तमोत्तम फलोंकी सोचने लगा। वह आनन्दके कारण उछलने लगा। उसने विरक्त होकर किया कि मोह इत्यादि शत्रु संख्य साथ नया रूपी महासत्र को सन्ततिका मूलीच्छेद करनेके लिए हमें जिनदीक्षा ग्रहण कर लेनी चाहिये इससे मोक्षकी प्राप्ति होगी बोर पाया मिलेगा। इसके बाद बाहर के दस और भीतर के चौदह परिग्रहों का परित्याग कर उन्होंने मन वचन और काम शुद्धिकर ने अन्य दोनों भाइयोंके साथ श्रद्धा-भक्ति पूर्वक
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