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शिर नवाइ तिन प्रम पाव धर्मबुद्धि दोनी जतिराय सुन किरात फिर जोरे हाथ जो मुनि कृपासिंधु जगनाथ १४४ कहा, धर्म कहिये समभाग, कोन भांति तिरि पावत ताय भोल वचन सुन मुनिवर कहे। सुरापान मधुमास न रहे ।। १४५ ।। जीव तनों व करे न नेश, यही धर्म जगमांहो महेश ता कर परम पुण्य की न निसुर को गई ।। १४६।। तब गुबिच सून कहे किरात मधुरानी को हमरी बाहार या विन दिन नहीं जीवन पार ॥ १४७॥ भील वचन सुन कहै मुनेश, काक मांस तुम त्यागो शेष । यह सुन कहै किरात, जु सोय, यौं व्रत नेम राख हौं जो ॥१४८ प्रात बाय पं व्रत नहि तो तुमरे चरणकमल उर भर्जी भील वचन सुन मुनिवत दयो, प्रति संतुष्ट होइ तिहि ॥१४९॥ इहि विधि का मांस तज तेह, नेम गाढ़ धारों श्रधिकेश। फिर मुनिवर के प्रनमै पाय, गर्यो आपने गृह सुख पाय ।। १५० ।। एक समय तिहि अशुभ उपाय, उपजी रोग देह घति जाय यह सुन भीष कहै तथ बैन का मांस में छोड़ी ऐन ।। १५१।। प्रान जांय पर व्रत नहि जाय, व्रत बिन है जीवन दुखदाव यह विधि भद्रनेमि जब सुनी, भगिनीपति आायो तिहि तनौ कांची देवी रोवत जोइ, वाही तस्वर ग्रायौ सोइ की तुम कहो तुम्हारी ठाम सब विरतंत कही अभिराम मैं हो बनदेवी सुन भास, याही वनमें मेरो वास खदिरसार है भर्तृ किरात, आयु निकट श्राई अवदात काक- मांस तुम देही जात, वह नारक गति जहे खात
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व्रत त जीव स्वर्ग एवं व्रत विहीन नर नरकहि है ।।१५२।। सूरवीर तस नाम विशेख, पंथ निकट वट तरु इक देख ।। १५३।। देवी प्रति सी पूछत भयो, कौन बिछोह रुदन इव यी ।। १५४।। मील वचन सुन देवी कही मेरे वचन सुनो तुम सही ।। १५५ || मित्र हेत प्रति पीड़त देह काम अमिन वाड़ी अधिके ।। १५६ काक मांस व्रत पुन्यहि जोइ, होनहार मेरो पनि सोइ ॥ १५७॥ या करण हौं रोवत खरो, और न दूजी विकलप धरी ।। १५८
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उसने देखा और नतमस्तक होकर प्रणाम किया। मुनि महाराज ने भी धर्म लाभ के लिए शुभ प्राशीर्वाद दिया । धर्म लाभ का आशीर्वाद सुनकर भीतने पूछा, महाराज धर्म क्या है? उसका कार्य और कारण क्या है? और उससे लाभ क्या होता है ? उन सब बातों को श्राप प्यानपूर्वक हमें समझा दीजिये उसके प्रश्न को सुनकर उन मुनीश्वर ने कहा कि हे भव्य, मधु, मां और मदिरा प्रभूति का परित्याग करता ही हिंसा रूप धर्म है। धर्म करने से उत्तम पुण्य की प्राप्ति होती है धीर से महान् स्वर्ग मोक्षादि सुखों की प्राप्ति होती है। यही धर्म करने का उत्तम फल है। मुनीश्वर के उत्तर को सुनकर भील ने कहा महाराज, मैं तो अभी पूर्ण रूप से मांस मदिरा इत्यादि के त्याग देने में एकदम असमर्थ हूं । उसको बात को सुनकर मुनोश्वर ने पूछा अच्छा, तू पहले यह तो बता कि कभी कीए का मांस खाया है या नहीं ? भीलने कहा- मैंने तो की एका मांस नहीं खाया है। यह सुनकर मुनीवर कहा यदि अब तक तूने कौए का मांस नहीं खाया तो सबसे कौए का मांस न खाने का तुम एक नियम-सा करके बिना किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती, पुण्य प्राप्ति की बात को तो सोचना ही व्यर्थ है । मुनीश्वर की बातको सुनकर भील प्रसन्न हुआ । और यतीश्वरसे व्रत लेकर उन्हें प्रणाम किया। बाद में धाज्ञा लेकर अपने घरको चला गया कभी अशुभ पायोदय से उसको कोई असाध्य रोग हो गया और वैध ने उस रोग को दूर करने के लिए औषधि स्वरूप कौए का मांस खाने को कहा। भोको तबतक मांस भक्षण और घृणा उत्पन्न हो गयी थी। क्यों की बतायी चिकित्सा को सुनकर भील ने अपने परिवारवालों से कहा कि जो करोड़ों जन्मों के दुर्लभ व्रत को छोड़ कर अपने प्राणों की रक्षा करता है वह सूर्य है और उससे धर्महीन पुरुषों का कोई साथ नहीं होता। प्राण तो प्रत्येक जन्म में मिल जाता है। परन्तु शुभताचरण का अवसर तो किसी पुष्पालीको ही कभी प्राप्त हो जाता है। व्रत भंगकर देनेकी अपेक्षा प्राणों का परित्याग कर देना ही उत्तम है। इस प्रकार शुभ परिणामों से प्राण परिस्थान कर देने से घोर नरक में जाने के लिये बाध्य होना पड़ता है। भील के इस नियम को जब सारसपुर के रहने वाले शूर-कोर भीने सुना जो कि उस भीलका एक मित्र या तब यह खदिर नामले बीमार भीमसे मिलने के लिये उसके नगर की तरफ चला मार्ग में एक घोर वन पड़ता था। उस बन में जाने पर भील ने देखा कि एक देवी बड़ के वृक्ष के नीचे रो रही है। यह देखकर भील ने पूछा कि तू कौन है ! और तुम्हारे इस तरह रोने का क्या कारण है ? इस प्रश्न को सुनकर देवो ने भील से कहा- महाशय में इस उनकी दक्षिणी हूं और मानसिक व्यथा के कारण यही रहती हूं। खदिर नामका एक भील जो कि तुम्हाथ मित्र है और जिससे मिलनेके लिए तुम जा रहे हो इस समय मरणासन्न है वह शुभोदय से काक-मांसका परित्याग कर चुका है, इसी कारण से पुण्यो
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