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यह प्रकार जक्षिणि वच सुन, समाधान या निज मन गुनै । नैम भंग मैं करती जात, बनदेवी जिहि राखी बात ॥१५॥ या कहि आतुर आयौ तहां, भद्र भील दुख पीडित जहाँ । तिहि परिणाम परीक्षा काज, कपट वचन सौभाष जास ॥१६॥ अहो भद्र दुख पीड़ित गात, वैद्य कथित औषधि किन खात । वृथा मरण काहे तुम लहौ, जो जीवत तो फिर व्रत गहौ ॥१६॥ तितके वच सुन बोल्यो वाहि, तुम जोग यह कहिवी नहि । अनुचित कर्म जगत में निंद, श्वभ्र तनों कारण दुखवृन्द ।।१६२।। मरण अवस्था पहुंची मोहि, सांप्रति जम नित दर्शन होहि । ताते किंचित धर्म-सनेह, सो परभव सुखदाय कहेह ।।१६३।। शरवीर निश्चय दृढ़ जान, तब हि जक्षिनी कथा बखान । प्रत फल कह्यौ सकल समझाय, देवी प्रीति वचन अधिकाय ॥१६४॥ तिन बच सन तब भद्र किरात, उर संवेग बड्यो अवदात । सकल मांस को कोनी त्याग, पंचप्रणवत में अनुराग ॥१६५।। काल निकट उर धार समाध, तने प्रान परमेष्ठि अराध । प्रथम स्वर्ग सौधर्म सुथान, भयो महद्धिक देव महान ।।१६६।। शुरवीर फिर निज पुर जाय, तरतल देवी देखी जाय । जब जक्षिन प्रति पूछी तेह, अब किहि कारण रोवत येह ॥१६७।। तब फिर जक्षिन भारी एम, शूरवीर सुन कारण जेम । मो विरतांत कह्यो तुम जाइ, भोल मांस सब त्याग कराइ ॥१६॥ ता फल प्रथम स्वर्ग सो गयौ, उत्तमदेव मद्धिक भयो । व्यंतर पदको कीनो नाश, मेरी पति न भयौ गई प्राश ||१६६।। भगतै कल्प लोक सुख जाय, बहु देवी सेबै तिन पाय । सकल लक्ष्मी तहं अधिकाय, सो सब भेद कही समझाय ॥१७०।। देवी वचन सकल सुन सोइ, उरमें इमि चित्यौ भ्रम खोइ । प्रत फल प्रगट' प्रवर सुखकार, परमारथ पथ साधनहार ।।१७१ व्रत सौं स्वर्ग संपदा लहै, व्रत बिन नरक घोर दुख सहै। यह चितत वह गयौ वतीप, समाधिगुप्त मुनिराज समीप ||१७२।। शिर नवाइके प्रनमौं पाय, श्रावक व्रत लीनो सुखदाय । चरणकमल नमिक ग्रह गयौ, जथाजोग्य वन पालन भयौ ॥१७३॥ ये ही प्रारज खण्डहि ठयो, सो मरि सुन्दर सुर द्विज भयो । मिथ्यामत तिहिके अधिकार, प्रहंदास संबोध्यौ सार ॥१७४।। काललब्धिको नियरी पाय, मिथ्याति छोड़यो दुखदाय । जिनमुद्रा घर तप बहु कियौ, पूरब कर्म जलांजलि दियौ ॥१७५।। प्रायू निकट मर तप फल लयौ, प्रथम स्वर्ग में सोसर भयो। बह देवी जूत क्रीड़ा कर, धर्म नेह निशदिन उर धरै ॥१७६।।
दय बश वह मर जाने के बाद मेरा पति होगा। तूं उसे मांस खाने के लिए प्राग्रह करने व्यर्थ ही जा रहा है। मांस खिलाकर तुम अपने मित्रको असह्य दुःख भोगने के लिये घोर नरक में भेजना चाहते हो? तुम्हारे इसी कार्य से हार्दिक परिताप है और इसी कारण से मैं रो रही हैं। उस देवी की बात को सुनकर खादिर भील के मित्र ने कहा देवी, तु शोक करना छोड़ दे, अब मैं उसके नियमको तोड़ने का प्रयत्न कदापि नहीं करूंगा। उसकी बात सुनकर देवी सन्तुष्ट हो गयी और वह आगे बढ़ा । जब उसने अपने मित्र के पास पहुंच कर उसे रुग्न-शय्या पर पड़ा देखा तब उसके परिणामों की परीक्षा लेने के अभिप्राय से उसने कहा मित्रजब कौए के मांस को खा लेने से तुम्हारा रोग दूर हो जाता है तब तुम्हें खा लेना चाहिये, क्योंकि यदि जीवन रहेगा तो बहुत से पूण्य कार्यों को कर लोगे। मित्रकी इस बात को सुनकर भील ने उत्तरमें कहा मित्र, तुम इस समय अत्यन्त निन्दनीय नरक में भेजने वाली बात को कहोगे--ऐसी पाशा नहीं थी। तुम्हारी बात तो धर्म का नाश करने वाली है। मेरी इस अन्तिम अवस्था के समय तुम कुछ धार्मिक शब्दोंका उच्चारण करो-जिससे कि परलोक में मेरी आत्माको सुख प्राप्त हो सके। भील के इस दृढ़निश्चय को देखकर वह प्रसन्न हुया और बनकी यक्षिणी वाली बात को कहा। इस कथा को कहने का अभिप्राय यह था कि वह अपने काक मांस त्याग रूपी प्रत का फल जान जाय । इस बात को सुन लेने के बाद भील के हृदय में विशेष रूप से धर्म और धर्म के फल में श्रद्धा उत्पन्न हुई। उसने संवेग को प्राप्त होकर मांस इत्यादि का एकदम परित्याग कर दिया और अणुव्रत में तत्पर हो गया। प्रायु के अन्त काल में समाधि पूर्वक अपने प्राणों का परित्याग करके बह खदिर नाम वाला भील व्रत के प्रभाव से मूल स्वरूप ऋद्धिवाले सौधर्म स्वर्ग में जाकर उत्तम सुखों का भोगने वाला देव हमा। उधर भील का मित्र शूरवीर जब अपने ग्रामको लौट रहा था तब बीच मार्ग में पुन: उस देवी से भेंट हो गयी। देवी से उसने पुछा कि क्या मेरा मित्र अभी तक तुम्हारा पति होकर नहीं आया। देवी ने उत्तर दिया मेरा पति तो नहीं हश्रा किन्तु सम्पूर्ण व्रतों से उत्पन्न पुण्य के उदय से वह अत्यन्त ऋद्धिशाली और गुणवान् देव होकर सौधर्म स्वर्ग में ही हमारी व्यन्तर जति से पृथक् कल्पवासी देव हो गया है। वहीं
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