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कमल कणिका चित इती, मेरु ऊंचाईके परिमिती । तापर इक सिंहासन चया, चन्द्रकान्ति मन सम किरणया ।।३६६।। निज सरूप तापर बैठारि, शान्तरूप प्राकुलता टारि | रागादिक परिणामहि त्याग, करन क्षपण हित अनुभव राग ।।३६७॥ पृथ्वी तत्व तनी यह रीति, साधै मुनिवर परम पवीत । यह पिण्डस्थ प्रथम है अंग, मन समुद्र जल रहित तरंग ।।३६८||
जलतत्व निरूपण
कर मन अभ्रपटलको ध्यान, जिनसौं जलधर कहे प्रवान । वरसावन अति भय रहि छाय, अरु प्रचण्ड दामिन पहिराय ।।३६६।। धार नहिं भू परिमित छयो, इन्द्र धनुष जुत पावस जयौ । पवनाकुल बरषत जलविद, मुक्ताफल वत उज्वल चन्द ||३७०॥ जलधारा कबहुं प्रति घोर, कबहू थूल महा बर जोर। इहि विधि वरष रहे जल सदा, शुचि अमृत जल स्नावै तदा ॥३७१।। ता जल कर्म धुलि बहि जाय, अमृत शोतल इह विधि प्राय । वरुण तत्व याही सौ कहै, कर्म ताप इमि शीतल लहै ।।३७२।।
अग्नितत्व निरूपण
चिते हुक कमल दल सोल, नाभिस्थल दल कर कलोल । दल दल प्रति स्वरमाला थप, अ इ उ ऋल प्रमान जहाँ दिय॥३७३।। सकल दलन पर फेरत जाय, अंतर रहित महा मुनिराय । फिर या कमल तनी कणिका, अर्ह मंत्र कर गुण थका ॥३७४।। रेफवंत कर दीपत सोइ, हम् आवंत परम अवलाई । ध्यान करत वा रेफ मझार, निकसे शिखा धूम निरधार ।।३७५।। फिर फलिंग छटं चामांहि, बहुरि अग्नि ज्वाला अधिकाय । हृदयकमल को दहे सु ागि, अधो बदन सी वसुदल लागि ।।३७६।। वसदल अष्टकर्म सो जान, जरि वरि भस्म होइ तिहि थान । फिर वह अगनि बाहरी होइ, ताको रूप कौन अवलोइ ॥३७७॥ स्वस्तिकवत रकार चौ फॅर, कंचन सम प्रज्वलित घनेर । मंत्र अनाहत त प्रगटाय, धगधगात सो अगनि जलाय ॥३७८|| अमल अष्टदल' भसम कराय, फिर स्वयमेव शांत हो जाय । यह पिंडस्थ तृतिय गुण मार, अग्नि तत्व कहि कर उपचार ||३७६।।
पवन तत्व निरूपण
जहां रचे तन अमर विमान, तामें बैठ कर मुनि ध्यान । चल पवन तह प्रति गम्भीर, तिरछो बहै हलावं घोर ॥३०॥ धन बहु गरजें अति भयभीत, आधे जहां करन रज शीत । सकल बारि जो देइ उड़ाय, फिर सो वारि शांत हो जाय ।।३८१॥
प्राकाश तत्व निरूपण
घात रहित निर्मल जू शरीर, कर्म कल क तनी नहि पीर । अविकारी अनरूपी सोय, सिद्ध समान प्रातमा होय ॥३८२।। चित धरै ऐसी निज काय, सिंहासन बैठारे ल्याय । अतिशय अरु प्रतिहारज जहां, पुण्य प्रकृति फल सगरे तहां ॥३८३॥ इन्द्र सकल सेवत कर जोर, जय जयकार होत चहुं ओर । यह पिण्डस्थ पंचमी रीति, सो साधे से मनकी जीति ||३४|| मन चंचलता जब मिट गई, पंचम गतिकीप्रापति भई । जो न होइ मनकी गति टोर, वृथा सकल ध्यानहि की दौर ॥३॥
दोहा
मन निरोध जहं पंचविध, कहो ध्यान पिण्डस्थ । जाते शिव-मारग सुगम, प्रागे सनो पदस्थ उनका
जोकि जीव पदगलकी गमन क्रिया में सहायक हैं वही धर्म द्रव्य है। धर्मद्रव्य, मतिहीन, क्रियाहीन और नित्य है। जिस प्रकार जल मछलियों की सहायता ही करता है प्रेरणा नहीं, बही अवस्था इसकी भी है। जो कि जीव पुद्गलकी संस्थिति में पथिकों की छायाके समान सहायक होता है, वह अधर्म द्रव्य है । यह अधर्म द्रव्य भी मूर्तिहीन, क्रियाहीन और नित्य हैं । प्राकाश, दव्य लोक और प्रलोक के भेद से दो प्रकारका कहा गया है। यह सम्पूर्ण द्रव्यों को स्थान देने वाला है और यह भी ऐसा ही मतिहीन है। जितने स्थान में धर्म, काल, पुद्गल और जीव रहते हैं उतनेको लोकाकाश कहते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य द्रव्यों से
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