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उपयोग प्ररूपण अाठ ज्ञान अरु दर्शन चार, ए बारह उपयोग विचार । सो पूरब बरन्यौ सत्र भेद, यह उपयोग थान विन खेद ।।३४७11
अथ ध्यान निरूपण
मार्तध्यान प्रारत रौद्र धर्म अरु शुक्ल, चार ध्यान ये नाम मुल्क । तिनही के सब सोरह डार, अब सुन प्रार्तध्यान विधि चार ।।३४८|| भली वस्तु को होय वियोग, इष्टवियोगी प्रथम नियोग | रादा विकलतामें मन रहै, दुतिय अनिष्ट संयोगी यह ॥३४६।। पीड़ा चितन तीजी जान, दु:ख विलाप करै दुर ध्यान । अगली सोचत सोचत मर, निदान बंध चौथो संचरे ॥३५०||
रौद्रध्यान रुद्रध्यान अब सुनह जू मित्त, चार अंग ताके सुन चित्त । हिसा करत धरै प्रानन्द, हिंसानन्दी प्रथम कूवन्ध ॥३५२।। मषानन्द दुजो अवलोय, बोलत झठ सुखी बहु होय । चोरी साधन मनघर प्रीति, चौर्यानंद तृतीय अनीत ॥३५२॥ सेवत विषय हलासी सोय, बंभ मंद चोथौ यह होय । अब सुन धर्मध्यान के चार, एक एकतं सुख अधिकार ॥३५३।।
धर्मध्यान केवल उक्त जीव सरदहै, प्राशाविचय स्वर्ग सुख लहै । (अ) पाय विचय दूजी गुण खान, कर्मनाश उद्यम अमिधान ।।३५४|| पहल कर्म उदय पहिचान (अ) पाक विचय तीजी गुणखान । तीन लोक नर आकृति मान, संस्थानक चौथौ यह ध्यान ॥३५५३
शुक्ल ध्यान शक्ल ध्यान चारों पद कहै, तहां मोहको प्रीति न रहै । जोगारूड़ पड़े सिद्धान्त, मातम गुण निणवारे संत ।।३५६।।
पशम डक श्रेणी विसराम, प्रथम वितर्क आदि पद नाम । उपशम छोड़ क्षपक चढ़ि जाय, लोकालोक प्रकाश कराय ।।३५७।। प्रकृति तिरेशठ नाश नहीं, बाको रहीं ? पचासी तहों । प्रगट्यो केवल गुण उज्जरी, अंग वितर्क नाम दूसरी ॥३५८।। जवहि बहत्तर प्रकृति नशाय, जिनवर प्रायु निकट रह जाय । है मन बच सूक्षम तिहि ठाम, सूक्षम क्रिया तृतीय पद नाम ||३५६।। अनंत चतुष्टयको परकाश, तेरह प्रकृति करी तब नाश । पंच लघक्षर परिमित सब, प्रष्ट कर्म डार मि तबै ॥३६॥ तन तज भये मुक्ति के राय, व्युपरत क्रिया निवति कहाय । चार ध्यानके सोरह पाय, सो वरनै संक्षेपहि ल्याय ।।३६१।।
ध्यानका विशेष निरूपण अब इनके सुन भेदाभेद, मन निरोध प्रातम नहि खेद । प्रथम ध्यान पिण्डस्थ अनूप, सो वरनौं धर पांच सरूप ।।३६२॥ पृथिवी जल प्ररु पग्नि जु वायु, नभ ये पंच तत्व थिर लायु । जो मुनि ध्यान पाराधन धरै, पद्मासन चित कर ॥३६३॥
पृथवीतत्व निरूपण मध्यलोक जो गिरदाकार, क्षीर समुद्र तह कर विचार । शब्द तरंग रहित थिर रूप, तामें चितै कमल अनप ।।३६४!! हेम वरण दल कर हजार, केशर अबर पराग जु सार । जम्बुद्वीप सम कमल सु लसै, चित्त भ्रमर ता ऊपर बसे ॥३६५।।
में हैं। ये स्वभाव गुण कहे जाते हैं। स्कन्धमें विभाव गुण कहा गया है। शब्द, अनेक तरह का बन्ध, अपेक्षासे स्थूल-सूक्ष्म छ: प्रकारके संस्थान, अन्धकार, छाया सातप, उद्योत इत्यादि पुद्गलोंके विभाब' पर्याय हैं। परमाणुनोंमें स्वभाव पर्याय ही रहते हैं। इसी प्रकार शरीर, मन, श्वासोच्छ्वास और इन्द्रियां भी पुद्गलके पर्याय स्वरूप हैं। ये सभी पुद्गल-पर्याय जीवन-मरण और सुखदुःख आदि रूपमें जीवोंका अनेक उपकार किया करते हैं। स्कन्धों में अर्थात् एकत्रित परमाणु पुंजमें काय-व्यवहार की बहुत अपेक्षा है तथा परमाणुमें उपचारसे कारण होने की अपेक्षा कायपना कहते हैं।
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