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पूर्व धातकी खण्ड द्वीप में सीता नदी के दाहिने तट पर एक मंडलावती नाम का देश है। उसके रत्नसंचय नगर में वानकप्रभ राजा राज्य करते थे। उनकी कनकमाला नाम की रानी थी। वह अहमिन्द्र उन दोनों दम्पतियों के गभ स्वप्नों द्वारा अपनी सूचना देता हया पद्य नाम का पुत्र उत्पन्न हुा । पद्म नाम, वालकोचित सेवा-विशेष के द्वार। निरन्तर वद्धि को प्राप्त होता रहता था। उपयोग तथा क्षमा प्रादि सब गुणों की पूर्णता हो जाने पर राजा ने उसे व्रत देकर विद्यागह में प्रविष्ट कराया। कलीन विद्वानों के साथ रहने वाला यह राजकुमार, दास तथा महावत प्रादि को दूर कर समस्त विद्वानों के सीखने में उद्यम करने लगा । लसने इन्द्रियों के ममह को इस प्रकार जीत रक्खा था कि वे इन्द्रियाँ सब रूप से अपने विषयों के द्वारा केवल प्रात्मा के साथ ही प्रेम बढ़ाती थीं । वह बुद्धिमान विनय की वृद्धि के लिए सदा वृद्धजनों की संगति करता था। शास्त्रों से निर्णय कर बिनय करना कृत्रिम विनय है और स्वभाव से ही बिनय करना स्वाभाविक विनय है। जिस प्रकार चन्द्रमा को पाकर गरु और शुक्र ग्रह अत्यन्त सुशोभित होते हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण कलाओं को धारण करने वाले अतिशय सुन्दर उन राजकुमार को पाकर स्वाभाविक और कृत्रिम दोनों प्रकार के विमान अतिशय सुशोभित हो रहे थे । वह बुद्धिमान राजकुमार सोलहवें वर्ष में यौवन प्राप्त कर ऐसा सुशोभित हुआ जैसा कि विनयवान् जितेन्द्रिय संयमी वन को पाकर सुशोभित होता है।
जिस प्रकार गद्र जाति के हाथी को देखकर उसका शिक्षक हर्षित होता है उसी प्रकार रूप, बा, अवस्था और शिक्षा से सम्पन्न तथा विकार से रहित पुत्र को देखकर पिता बहुत ही हर्षित हुए। उन्होंने जिनेन्द्र भगवान् की पूजा के साथ उसकी विद्या की गुजा की तथा संस्कार किये हुए रत्न के समान उसकी बुद्धि दूसरे कार्य में लगाई। जिस प्रकार शुद्ध पक्ष-शुक्लपक्ष के प्राथय से कलाओं के द्वारा बालचन्द्र को पूर्ण किया जाता है उसो प्रकार बलवान् राजा ने उस मुन्धर पुत्र का जनक स्त्रियां से पूर्ण किया था अर्थात् उसका अनेक स्त्रियों के साथ विवाह किया था। जिस प्रकार सूर्य के किरण उत्पन्न होती हैं उसी प्रकार उसकी सोमप्रभा आदि रानियों के सुवर्णनाम आदि शुभ पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार पुत्र-पुत्रादि से घिरे हुए श्रीमान और बुद्धिमान् राजा कनकप्रभ सुख से अपने राज्य का पालन करते थे।
किसी दिन उन्होंने मनोहर नामक वन में पधारे हए श्रीधर नामक जिन-राज से धर्म का स्वरूप मुनकर अपना राज्य पत्र के लिए दे दिया तथा संयम धारण कर कम-क्रम से निर्वाण प्राप्त कर लिया। पद्मनाभ ने भी उन्हीं जिनराज के समीप श्रावक के ब्रत लिए तथा मन्त्रियों के साथ स्व राष्ट्र और पर-राष्ट्र की नीति का विचार करता हुआ वह सुख से रहने लगा। परस्पर के समान अत्यन्त कोमल स्त्रियों को विनय, हंसी, स्पर्श, विनोद, मनोहर बातचीत और चंचल चितवनों के द्वारा वह चित्त की परम प्रसन्नता को प्राप्त होता था । कामदेव रूपी कल्प-वृक्ष से उत्पन्न हुए, स्त्रियों के प्रेम से प्राप्त हुए और थके हए भोगापभोग रूपी उत्तम फल हो राजा पद्मनाभ के वैराग्य की सीमा हुए थे अर्थात् इन्हीं भोगोपभोगों से उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया था।
ये सब भोगोपभोग पूर्व भव में किये हुए पुण्यकर्म के फल हैं इस प्रकार मूर्ख मनुष्यों को स्पष्ट रीति से बतलाया हुअर वह तेजस्वी पद्मनाम सुखी हुआ था। विद्वानों में श्रेष्ठ पद्मनाभ भी, श्रीधर मुनि के समीप धर्म का स्वरूप जानकर अपने हृदय में संसार और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप इस प्रकार विचारने लगा। उसने विचार किया कि जब तक प्रौदयिक भाव रहता है तब तक आत्मा को संसार-भ्रमण करना पड़ता है औदयिक भाब तब तक रहते हैं जब तक कि उनके कारण विद्यमान रहते हैं । कर्मों के कारण मिथ्यात्वादिक पांच हैं। उनमें से जहां मिथ्यात्व रहता है वहां बाकी के चार कारण अवश्य रहते हैं। जहां असंयम रहता है वहां और उसके सिवाय प्रमाद कषाययोग ये तोन कारण रहते हैं। जहां कवाय रहती है वहां उसके सिवाय योग धारण रहता और जहाँ कषाय का अभाव है वहां सिर्फ योग हो बन्ध का कारण रहता है।
अपने-अपने गणस्थान में मिथ्यात्वादि कारणों का नाश होने से वहां उनके निमित्त से होने वाला बन्ध भी नष्ट हो जाता है। पहले सता, बन्ध और उदय नष्ट होते हैं, उनके पश्चात् चौदहवें गुणस्थान तक अपने-अपने काल के अनुसार कर्म नष्ट होते हैं तथा कर्मा के नाश होने से संसार का नाश हो जाता है। जो पाप रूप है और जन्म-मरण ही जिसका लक्षण है ऐसे संसार
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