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रहता है, जिसके हाथ में पाश है, जो जल प्रिय है-जिसे जल प्रिय है (पक्ष में जिसे जड़-मूर्ख प्रिय है) और जो नदीनाश्रय हैसमुद्र में रहता है (पक्ष में दीन मनुष्यों का प्राश्रय नहीं है) ऐसा वरुण प्रजा की रक्षा कैसे कर सकता है? जो अग्नि का मित्र है, स्वयं अस्थिर है और दूसरों को चलाता रहता है उस वायु को विधाता ने वायव्य दिशा का रक्षक स्थापित किया सो ऐसा वायु क्या कहीं ठहर सकता है? जो लोभी है वह कभी पुण्य-संचय नहीं कर सकता और जो पुण्यहोन है वह कैसे रक्षक हो सकता
बकि कुबेर कभी किसी को धन नहीं देता तब उसे विधाता ने रक्षक कैसे बना दिया ? ईशान अन्तिम दशा को प्राप्त होता है, गिनती उसकी सबसे पीछे होती है, पिशाचों से घिरा हुआ है और दुष्ट है इसलिए यह ईशान दिशा का स्वामी कैसे हो सकता है ?
ऐसा जान पड़ता है कि विधाता ने इन सवको वृद्धि की विकलता से ही दिशामों का रक्षक बनाया था और इस कारण उसे भारी अपयश उठाना पड़ा था। अब विधाता ने अपना सारा अपयश दूर करने के लिए ही मानो इस एक अजितसेन को समस्त दिशामों का पालन करने में समर्थ बनाया था। इस प्रकार के उदार वचनों को माला बनाकर सब लोग जिसकी स्तुति करते हैं और अपने पराक्रम से जिसने समस्त दिशाओं को व्याप्त कर लिया है ऐसा अजितसेन इन्द्रादि देवों का उल्लंघन करता था। उसका धन दान देने में, बुद्धि धार्मिक कार्यों में, शूरवीरता प्राणियों की रक्षा में, प्रायू सूख में और शरीर भोगोपभोग में सदा वृद्धि को प्राप्त होता रहता था। उसके पुण्य की वृद्धि दूसरे के प्राधीन नहीं थी, कभी नष्ट नहीं होती थी और उसमें किसी तरह की बाधा नही आती थी। इस प्रकार वह तृष्णा रहित होकर गुणों का पोषण करता हया बड़े पाराम से सुख को प्राप्त होता था। उसके वचनों में सत्यता थी, चित्त में दया थी, धार्मिक कार्यो में निर्मलता थी. और प्रजा को अपने गुणों के समान रक्षा करता था फिर वह राजर्षि क्यों न हो?
मैं तो ऐसा मानता हूं सुजनता उसका स्वाभाविक गुण था । यदि ऐसा न होता तो प्राण हरण करने वाले पापी शत्रु पर भी विकार को क्यों नहीं प्राप्त होता । उसके राज्य में न तो कोई मुलहर था—मूल पूजी को खाने वाला था, न कोई कदर्य था-अतिशय कृपण था और न कोई तादात्विक था- भविष्यत् का विचार न रख वर्तमान में ही मौज उड़ाने वाला था, किन्तु सभी समीचीन कार्यों में खर्च करने वाले थे । इस प्रकार जब बह राजा पृथ्वी का पालन करता था तब सब और सुराज्य हो रहा था और प्रजा उस बुद्धिमान् राजा को ब्रह्मा मानकर वृद्धि को प्राप्त हो रही थी। जब नव यौवन प्राप्त हुना तब उस राजा के पूर्वोपार्जित पुण्य कर्म के उदय से चौदह रत्न और नौ निधियां प्रकट हुई थीं। भाजन, भोजन, शय्या, सेना, सवारी, ग्रासन, निधि, रत्न, नगर और नाट्य इन दश भोगों का वह अनुभव करता था।
श्रद्धा आदि गुणों से सम्पन्न उस राजा ने किसी समय एक माह का उपवास करने वाले परिन्दम नामक साधु के लिए पाहार-दान देकर नवीन पुण्य का बन्ध किया तथा रत्न-वृष्टि आदि पंचाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि उत्तम कार्यों के करने में तत्पर रहने वाले मनुष्यों को क्या दुर्लभ है ? दूसरे दिन वह राजा, गुप्तप्रभ जिनेन्द्र की वन्दना करने के लिए मनोहर नामक उद्यान में गया। वहीं उसने जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए श्रेष्ठ धर्म रूपी रसायन का पान किया, अपने पूर्व भव के सम्बन्ध सूने, जिनसे भाई के समान प्रेरित हो शीघ्र ही बैराग्य प्राप्त कर लिया। वह जितशत्रु नामक पुत्र के लिए राज्य देकर त्रैलोक्य विजयी गोह राजा को जीतने के लिए इस प्रकार निरलिचार तप-तप कर प्रायु के अन्त में वह नभस्तिलक नामक पर्वत के अग्रभाग पर शरीर छोड़ सोलहवें स्वर्ग के शान्तकार विमान में अच्युतेन्द्र हुआ। वहां उसकी बाईस सागर की आयु थी, तीन हाथ ऊंचा तथा धातु-उपधातुओं से रहित देदीप्यमान शरीर था, शुक्ललेश्या थी, वह ग्यारह माह में एक बार श्वास लेता था, बाईस हजार वर्ष बाद एक बार अमृतमयी मानसिक आहार लेता था, उसके देशावविज्ञान-रूपी नेत्र छठवीं पथ्वी तक के पदार्थों को देखते थे, उसका समीचीन तेज, बल तथा बैक्रियिक शरीर भी छठवीं पृथ्वी तक व्याप्त हो सकता था। इस प्रकार निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला वह अच्युतेन्द्र चिरकाल तक स्वर्ग के सुख भोम प्रायु के अन्त में कहाँ उत्पन्न हुआ यह कहते हैं ।
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