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प्रभ नामक पर्वत पर विधिपूर्वक संन्यासमरण किया। जिससे प्रथम स्वर्ग के श्री प्रभ विमान में दो सागर की प्रायु वाला श्री धर नाम का देव हुअा। वह देव अणिमा, महिमा आदि पाठ गुण से युक्त था, सात हाथ ऊँचा उसका शरीर था, वैक्रियिक शरीर का धारक था, पीतलेश्या वाला था, एक माह में श्वास लेता था; दो हजार वर्ष में अमृतमय पुद्गलों का मानसि पाहार लेता था, कायप्रवीचार से संतुष्ट रहता था, प्रथम पृथ्वी तक उसका अवधिज्ञान था, बलराज तथा बिक्रिया भी प्रथम पृथ्वी तक थी, इस तरह अपने पुण्य कर्म के परिपाक से प्राप्त हुए सुख का उपभोग करता हुभा वह सुख से रहता था।
धातकी खण्ड द्वीप की पूर्व दिशा में जो इष्वाकार पर्वत है उससे दक्षिण की ओर भरत क्षेत्र में एक अलका नाम का सम्पन्न देश है। उसमें अयोध्या नामक उत्तम नगर है। उसमें अतितंजय राजा सुशोभित था। उसकी अजितसेना नाम की वह रामो थी जो कि पुत्र सुख प्रदान करती थी। किसी एक दिन पुत्र-प्राप्ति के लिए उसने जिनेन्द्र भगवान की पूजा की और रात्रि को पुत्र की चिन्ता करती हुई सो गई। प्रातःकाल नीचे लिखे हुए आठ शुभस्वप्न उसने देखे। हाथी, बैल, सिंह, चन्द्रमा, सूर्य, कमलों से सुशोभित सरोवर, शंख और पूर्ण कलश । राजा अतितंजय से उसने स्वप्नों का निम्न प्रकार फल ज्ञात किया । हे देवी! हाथी देखने से तुम पुत्र को प्राप्त करागी; बैल के देखने से वह पुत्र गंभीर प्रकृति का होगा; सिंह के देखने से अनन्त बल का धारक होगा, चन्द्रमा के देखने से सबको संतुष्ट करने वाला होगा, स्यं को देखने से तेज और प्रताप से युक्त होगा, सरोवर के देखने से शंख-चक्र प्रादि बत्तीस लक्षणों से सहित होगा, शंख देखने से चक्रवर्ती होगा और पूर्ण कलश देखने से निधियों का स्वामी होगा।
स्वप्नों का उक्त प्रकार फल जानकर रानी बहत ही संतुष्ट हई। तदन्तर कूछ माह बाद उसने प्राक्त श्रीधरदव की उत्पन्न किया । राजा ने शत्रुओं को जीतने वाले इस पुत्र का अजितसेन नाम रखा । राजा उस तेजस्वी पुत्र से ऐसा सुशोभित होता था जैसा कि धूल रहित दिन सूर्य से सुशोभित होता है। यथार्थ में ऐसा पुत्र ही कूल का आभूषण होता है। दूसरे दिन स्वयंप्रभ नामक तीर्थकर अशोक बन में आये । राजा ने परिवार के साथ जाकर उनकी पूजा की, स्तुति की, धर्मोपदेश सुना और सज्जनों के छोड़ने योग्य राज्य शत्रुनों को जीतने वाले अजिसेन पुत्र के लिए राज्य देकर संयम धारण कर लिया तथा स्वयं केवलज्ञानी बन गया । इधर अनुराग से भरी हुई राज्य लक्ष्मी ने कुमार अजितसेन को अपने वश कर लिया जिससे वह युवावस्था में ही प्रौढ़ की तरह मुख्य सुखों का अनुभव करने लगा उसके पुण्य कर्म के उदय से चक्रवर्ती के चक्ररत्न आदि जोदो चेतन-अचेतन सामग्री उत्पन्न होती है वह सब माकर उत्पन्न हो गई।
उसके समस्त दिशाओं के समूह को जीतने वाला चक्ररत्न प्रकट हुआ। चक्ररत्न के प्रकट होते ही उसके लिए दिग्विजय करना नगर के बाहर घूमने के समान सरल हो गया। इस चक्रवर्ती के कारण कोई भी दुःखी नहीं और यद्यपि यह छह खण्ड का स्वामी था फिर भी परिग्रह में इसकी प्रासक्ति नही थी। यथार्थ में पुण्य तो वही है जो पूण्य कर्म का बन्ध करने वाला हो । उसके साम्राज्य में प्रजा को यदि दुःख था तो अपने अशुभ कर्मोदय से था और सुख था उस राजा के द्वारा सम्यक रक्षा होने से था। यही कारण था कि प्रजा उसकी बन्दना करती था। देव और विद्याधर राजाओं के मुकुटों के अग्रभाग पर चमकने वाले रत्नों की किरणों को निष्प्रभ बनाकर उसकी उन्नत माज्ञा ही सुशोभित होती थी। यदि निरन्तर उदय रहने वाले और कमलों को पानन्दित करने वाले सूर्य का बल प्राप्त नहीं होता तो इन्द्र स्वयं अधिपति होकर भी अपनी दिशा की रक्षा कैसे करता । बिधाता अवश्य ही बुद्धि हीन है क्योंकि यदि वह बुद्धिहीन नहीं होता तो प्राग्नेय दिशा की रक्षा के लिए अग्नि को क्यों नियुक्त करता? भला जो अपने जन्मदाता को जलाने वाला है उससे भी क्या कहीं किसी की रक्षा हुई है ?
क्या विधाता यह नहीं जानता था कि यमराज या मारक? फिर भी उसने उसी सर्व भक्षी पापी को दक्षिण दिशा का रक्षक बना दिया । जो कुत्ते के स्थान पर रहता है, दीन है, सदा यमराज के समीप रहता है और अपने जीवन में जिसे संदेह है ऐसा नैऋत किस की रक्षा कर सकता है ? जो जल भूमि में विद्यमान बिल में मकरादि हिसक जन्तु के समान
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