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यह बतलाया गया है कि चार पदार्थ हैं (१) पृथ्वी, (२) अग्नि, (३) वायु और (४) जल । पाकाश भी कभी २ गिन लिया जाता है। किन्तु म० बुद्ध ने उनको किस ढंग से स्वीकार किया था यह ज्ञात नहीं है। केवल यह प्रगट है कि प्रत्येक पौद्गलिक पदार्थ एक मिश्रण है, जो शरीर की तरह किसी समय तक बना रहेगा, परन्तु अन्त में नष्ट हो जावेगा। पदार्थ अनित्य हैं। प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में वे क्षणिक स्वीकृत नहीं हैं। यह उपरान्स का सुधार है।
विशेषकर बद्ध के निकट लोक केवल अनुभव का एक पदार्थ था। उन्होंने इसकी नित्यता और अनन्तता के सम्बन्ध में कुछ कहने से साफ इन्कार कर दिया था, किन्तु इतने पर भी यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध ने जो उक्त चार पदार्थों को स्वीकार किया था सो उसमें उन्होंने यथार्थ वाद को अन्ततः गौण रूप में स्वीकार ही किया था। इससे उनके विवेचन को अनियमितता भी प्रकट है। उक्त चार पदार्थों के अतिरिक्त बुद्ध ने उनके साथ निर्वाण और विज्ञान की गणना करके अपना सैद्धान्तिक मत छ: तत्वों पर प्रारम्भ किया था । विज्ञान में दुःख और सुख को अनुभव करने का भाव गर्भित था। यह सब पदार्थ नित्य ही थे और इन ही के पारस्परिक सम्बन्ध से संसार का अस्तित्व बतलाया था ।
इस सिद्धान्त विवेचन में बुद्ध से प्राचीन मतों का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है। इनमें मुख्यतः ब्राह्मण और जैन धर्म का प्रभाव दृष्टव्य है। जो चार पदार्थ म. बुद्ध ने स्वीकार किये हैं बह ब्राह्मण धर्म में पहले से ही स्वीकृत थे इसलिए वह उहोंने वहां के लिए उन्होंने उनको जिस ढंग से प्रतिपादित किया है वह जैन धर्म की लोकमान्यता से मिलता जुलता है। जैनियों के अनुसार भी छह द्रव्योंकर युक्त यह लोक है परन्तु वह छह द्रव्य महात्मा बुद्ध द्वारा स्वीकृन ६ तत्वों से बिल्कुल भिन्न थे जैसे हम अगाडी देखेंगे। इसके अतिरिक्त बुद्ध ने जो धर्म की व्याख्या को थी वह भी सामान्यतया जैन व्याख्या से मिलती जुलती थी, जैसे कि हम देख चुके हैं। फिर बुद्ध ने जो उसक दो भेद आभ्यन्तिरिक (अज्झत्तिक) और बाह्य (बाहर) किये थे, वह भी सामान्यतः जैन सिद्धान्त के निश्चय और व्यवहार धर्म के समान है। किन्तु फर्क यहाँ भी विशेष मौजद है, क्योंकि बौद्धों के निकट इनका सम्बन्ध सिर्फ बाह्य जगत और मानसिक सम्बन्धों से है, और जैन सिद्धान्त में इनके अलावा पदार्थ के वास्तविक स्वरूप से भी यह सम्बन्धित है। इससे यह साफ प्रगट है कि म. बद्ध ने केवल जैनियों के व्यवहार धर्म का किचित पाश्रय लेकर अपने सिद्धान्तों का निरूपण किया था इसलिए जैन शास्त्रों में म. बुद्ध धर्म की गणना एकान्तवाद में को गई है। श्री गोम्मटसारजी का निम्न इलोक यही प्रगट करता है :
एयंत बुद्धदरसी विवरीयो वंभ तावसो विणयो।
इंदो वि य संसइप्रो मक्कडियो चेव अण्णाणी ।। इसमें बौद्ध को एकान्तवादी, ब्रह्म या ब्राह्मणों को विपरीत मत, तापसों को बैनयिक, इंद्र को सांशयिक और मंखलि या मस्करी को प्रशानी बतलाया है। किन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थों में बौद्ध धर्म को प्रक्रियावादी लिखा है, जो स्वयं यौद्धों के शास्त्रों के उस्लेखों से प्रमाणित है। यहां पर श्वेताम्बराचार्य बौद्धों के अनात्मबाद को लक्ष्य करतो ऐसा लिखते हैं, जबकि दिगम्बराचार्य उनके सैद्धान्तिक विवेचन को पूर्णत: लक्ष्य करके उसे एकान्तवादी ठहराते हैं। अक्रियावाद एकान्त मत का एक भेद है। स्वयं दिगम्बर जैनों की तत्वार्थ राजवातिक (८1१1१०) में बौद्ध धर्म के मुख्य प्रेणता मौदंगलायन का उल्लेख प्रक्रियावादियों में किया गया है।
पाइए अब जरा भगवान महावीर के धर्म पर भी एक दृष्टि डाल लें। उन्होंने जिस प्रकार धर्म की व्याख्या की थी, उसी के अनुसार समस्त सत्तावान पदार्थों के विषय में सनातन सत्य का निरूपण किया। उन्होंने कहा कि यह लोक प्रारम्भ और अन्त रहित अनादि निधन है। यह द्रव्यों का लीलाक्षेत्र है, जो द्रव्य अनादि से सत्ता में विद्यमान हैं और अनंतकाल तक वैसे ही रहेंगे। इस तरह इस लोक में न किसी नवीन पदार्थ की सष्टि होती है और न किसी का सर्वथा नाश होता है। केवल द्रव्यों की पर्यायों में उलट फेर होती रहती है, जिससे लोक की खास अवस्था का जन्म अस्तित्व और नाश होता रहता है। इस कार्य कारण सिद्धान्त में इस प्रकार किसी एक सर्व शक्तिवान कर्ता-हर्ता की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः एक प्रधान व्यक्ति के ऊपर संसार का सर्व भार डालकर स्वयं निश्चिन्त हो जाना कुछ सैद्धान्तिकता प्रकट नहीं करता। संसार का रक्षक होकर संसारी जीव पर वथा ही दुःखों के पहाड़ उलटना कोई भी बुद्धिमान स्वीकार नहीं करेगा। सचमुच सांसारिक कार्यों को अपने जुम्मे लेकर वह ईश्वर स्वयं राग और द्वेष का पिटारा बन जाएगा और इस दशा में वह सांसारिक मनुष्य से भी अधिक बन्धनों में बंध जाएगा। इस अवस्था में ईश्वर को अनादि निधन मानने के स्थान पर स्वयं लोक को ही अनादि निधन मान लेने से यह झंझटें कुछ भी सामने नहीं पाती हैं। बरतुत: भारतीय षदर्शनों का सूक्ष्म अध्ययन करने से उनमें भी एक कर्ताहता ईश्वर की मान्यता के