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और कायोत्सर्ग शान्त अवस्था के बिल्कुल समान है। प्रतएव इस अवस्था में यह जैन शास्त्रों को इस मान्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि म बुद्ध अपने साधु जीवन में किसी समय जैन मुनि भी रहे थे। जैन शास्त्रकार कहते हैं कि श्रीपार्श्वनाथ भगवान के तीर्थ में सरयू नदी के तटवर्ती नाश नाग नगर में निशान मधु का शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुअा जो महायुत का बड़ा भारी शास्त्रज्ञ था । परन्तु मछलियों के आहार करने से वह ग्रहण की हुई दीक्षा से भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर (लाल वस्त्र धारण करके उसने एकान्त मत की प्रवृत्ति की। फल, दही, दुध, शक्कर आदि के समान मांस में भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और क्षण करने में कोई पाप नहीं है । जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य अर्थात तरल या बहने वाला पदार्थ है उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नहीं है। इस प्रकार की घोषणा करके उसने संसार में सम्पूर्ण पाप कर्म की परिपाटी चलाई । एक पाप करता है और दूसरा उसका फल भोगता है, इस तरह के सिद्धान्त की कल्पना करके और उससे लोगों को वश में करके या अपने अनुयायी बनाकर वह मृत्यु को प्राप्त हुना। जैन शास्त्रकार के इस कथन को सहसा हम अस्वीकार नहीं कर सकते हैं । अन्तिम बाक्यों से यह स्पष्ट है कि शास्त्रकार बौद्ध धर्म और म. बुद्ध का उल्लेख कर रहा है, क्योंकि 'क्षणिक बाद' बौद्ध धर्म का मुख्य लक्षण है जिसका ही प्रतिपादन इन वाक्यों में किया है । इतने पर भी जो जैन शास्त्रों ने बौद्धों के प्रति मद्यपान करने का लांछन लगाया है। वह ठीक नहीं है। इसमें किसी प्रकार की भूल नजर प्राली है, किन्तु इसके कारण हम उक्त वाक्यों की अपेक्षा नहीं कर सकते । बेशक यह उस जमाने की ईसा की नवीं शताब्दी की रचना है, जब भारतीय मतों में पारस्परिक स्पर्धा बहुत स्पष्ट और अधिकता पर हो गई थी, प्रतएव' जैनाचायं का तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार म. बद्ध का उक्त प्रकार उल्लेख करना कुछ अनोखी क्रिया नहीं है, परन्तु इस पर जो कुछ उन्होंने लिखा है, उसमें केबल मद्यपान की बात को छोड़कर शेष सब यथार्थ को लिये हुए हैं ! जिस स्थान पर पहिले पहल म० बुद्ध ने जैन मुनि की दीक्षा ग्रहण की थी। उसका नाम ठीक से बतलाया गया है । जैन और बौद्ध दोनों ही उस स्थान को वनग्राम (बौद्ध और जैन पलाशग्राम-- पलाश वनग्राम) बतलाते हैं और कहते हैं कि नदी उसके पास में थी, जैसे कि हम ऊपर देख चुके है। तथापि बौद्ध शास्त्रकार म० बुद्ध की दीक्षा ग्रहण करने की क्रिया का भी उल्लेख ( अभिवादन और नियमित क्रियाओं और सेवाओं से निवृत्त होने में ) रूप में करता है, और अन्तिम वाक्यों द्वारा जो जैनाचार्य ने बौद्ध मान्यतामों का उल्लेख किया है, सो भी बिल्कुल ठीक थे। बौद्धधर्म का क्षणिकबाद विख्यात ही है तथापि बौद्धधर्म में प्रारम्भ से ही मृत मांस को भोजन में ग्रहण करना बुरा नहीं बतलाया गया है। जो जनों के अनुसार एक असक्रिया है । इस दशा में हम जैन शास्त्रकार के कथन को मान्यता देने के लिए बाध्य हैं। इसके साथ ही हमको ज्ञात है कि जब म. बुद्ध सर्वप्रथम अपने धर्म प्रचार के लिए राजगृह में गये थे तो वहां के 'सुप्पतिस्थ' नामक मन्दिर में ठहरे थे। इसके उपरान्त फिर कभी भी उसका उल्लेख हमें इस या ऐसे मन्दिर में ठहरने का नहीं मिलता है। इस मन्दिर का नाम जो 'सुप्पतित्थ' है, सो उसका सम्बन्ध किसी "तित्थिय मतप्रवर्तक से होना चाहिए, परन्तु हम देखते हैं कि उस समय के प्रख्यात छ: मतप्रवर्तकों में इस तरह का कोई नाम नहीं मिलता। हां, जैन तीर्थंकरों में एक सुपारवनाथ जी अवश्य हए हैं और उनके संक्षिप्त नाम की अपेक्षा उनके मूल नायकत्व का मन्दिर अवश्य ही 'सुप्पितित्थ' का मन्दिर कहला सकता है। जैन तीर्थ करों के नामों का उल्लेख ऐसे संक्षिप्त रूप में होता था, यह हमें जैन शास्त्रों के उल्लेखों से मिलता है। 'दर्शनसार' ग्रंथ में 'विपरीत मत' की उत्पत्ति बतलाते हुए प्राचार्य लिखते हैं:
सवयतित्थे उज्झो खोरकादंबुत्ति सुद्धसम्मत्तो। इसमें बीईसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ जी का नामोल्लेख केबल 'सुब्बय' के रूप में किया गया है। इसी तरह लोक ध्यवहारत: संक्षेप में सुपायर्वनाथ जी का नामोल्लेख 'सूप्प' के रूप में किया जा सकता है। इस रीति से जिस 'सूपतित्थ के मन्दिर में म० बुद्ध पहिले पहिल ठहरे थे, वह जैन मन्दिर हो था। और उसमे उसके बाद फिर उनके ठहरने का उल्लेख नहीं मिलता है, उसका यही कारण प्रतीत होता है कि जैनियों ने जान लिया कि बुद्ध अब जिन प्रणीत धर्म के विरुद्ध हो गये हैं. इसलिए उन्होंने भ्रष्ट जैन मुाने को पुनः आश्रय देना उचित नहीं समझा। इस तरह भी जैनों की इस मान्यता का समर्थन होता है कि म० बुद्ध एक समय जैन मुनि भी रहे थे।
अन्ततः म०बद्ध स्वयं अपने मुख से जैनियों की इस मान्यता को स्वीकार करते हैं। एक स्थान पर वे कहते हैं कि मैंने सिर और दाढी के बाल नोचने की भी परिषह सहन की है। यह मुनियों की केशलोंच क्रिया है । अतएव इसका अभ्यास बुद्ध ने तब ही किया होगा जब वह जन मुनि रहे होंगे। इस तरह यह स्पष्ट है कि म बुद्ध अपने धर्म का प्रचार करने के पहिले जन मुनि थे और हम देखते हैं कि उन्होंने किसी एक सम्प्रदाय की मुनि-क्रियाओं का पालन नहीं किया था। एक समय वे वानप्रस्थ संन्यासी थे तो दूसरे समय जैन मुनि थे।
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