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प्रथम प्रहर में उन्होंने अपने पूर्व जन्मों के वृत्तान्तों को जान लिया, मध्यरात में उनकी दिव्य दृष्टि पवित्र हो गई, और अन्तिम प्रहर में कार्य कारण के सिद्धान्त की तली तक पंठ कर उन्होने उसको जान लिया। इस कथन से हमारे उक्त अनुमान की पुष्टि होती है । अवधिज्ञान द्वारा विचार कर किसी खास विषय की परिस्थिति वतलाई जा सकती है । और अवधिज्ञानी अपने व किसी के भी पूर्वभव जान सकता है। इस प्रकार इसमें संशय नहीं कि म. बुद्ध को बोधिवृक्ष के निकट अवधिज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
इस तरह जब म बुद्ध को साधारण शान से कुछ अधिक की प्राप्ति हुई, जो कि उनके जीवन की एक अलौकिक और प्रख्यात घटना है, तो उनके भक्तों ने उनको तथागत या बुद्ध कहकर ख्याति प्रकट की। भगवान महावीर का भी उल्लेख इस नामों से हरा मिलता है. परन्तु उनकी तीर्थकर उपाधि थी, वह म० बुद्ध से बिल्कुल विलक्षण और सार्थक है । म बुद्ध के निकट उसका भाव विधर्मी मत प्रर्वतक का था।
जब म बुद्ध को सम्बोधी की प्राप्ति हो चुकी तो उन्होंने उस समय से धर्म प्रचार करना प्रारम्भ नहीं किया था, उनको संशय था कि शायद ही जनता उनके संदेश को समझ सके इसलिए वह कुछ समय तक एकान्त में रहकर शान्ति का उपभोग करने लगे। परन्तु अन्तत: वह अपनी इस कमजोरी को दूर करके धर्म प्रचार के लिए उद्यत हुए। बौद्ध कहते हैं कि इस समय स्वय ब्रह्मा ने आकर उनको उत्साहित किया था। अतएव अपने धर्म का प्रचार करने का दढ़ निश्चय जब उन्होंने कर लिया, तो उनको इस बात की फिकर हुई कि किस व्यक्ति को उपदेश देना चाहिए। इस पर उन्होंने अपने पूर्वगुरु पारादकालाम को इस योग्य पाया, किन्तु इसी समय किसी देवता ने उनसे कहा कि पारादकालाम की मृत्यु हो चुकी है। इसके साथ ही उन्होंने अपनी ज्ञान दृष्टि से काम लिया तो यही बात प्रमाणित हुई। फिर दूसरे गुरु उद्दकरामपुत्त के विषय में भी यही घटना उपस्थित हुई । अन्ततः उन्होंने उन पांच ऋषियों को उपदेश देना उचित समझा जिनके साथ उन्होंने छः वर्ष तक घोर तपश्चरण किया था। उस समय उन पांचों को ऋषिपट्टन-बनारस में स्थित जानकर म. बुद्ध उस ही ओर प्रस्थान कर गये। सम्बोधी के पश्चात् म बुद्ध ने अपने आप पाहार करना नियम विरुद्ध समझा था। इसलिए उनका प्रथम प्रहार तपुस्य और भल्लिक वणि कों के यहां मार्ग में हुआ था।
उक्त प्रकार जब म बुद्ध बनारस को अपने धर्म प्रचार के लिए जा रहे थे, तो मार्ग में उनको एक 'उपाक' नामक प्राजीवक भिक्षु मिला था। इसके पूछने पर उन्होंने अपने को 'सम्बद्ध' प्रकट किया था, परन्तु उस भिक्षुक को इस कथन पर संतोष नहीं हुना। उसने कहा, जो प्राप कहते हैं शायद वही ठीक हो । आखिर यह बनारस पहुंच गये । वहाँ ऋषि पट्टन में उन्होंने अपने पूर्व परिचय के पांच ऋषियों को पाया । पहले पहल उन्होंने म० बुद्ध के कथन पर विश्वास नहीं किया
और उसका उल्लेख समान्य रीति से मित्र के रूप में किया। इस पर म० बुद्ध ने विशेष रीति से उनको समझाया और आरवासन दिया एवं अपने को तथागत कहने का आदेश किया। तब उन्होंने म. बुद्ध के कथन को स्वीकार किया और उन्हें अपना गुरु माना। इनमें मुख्य कोन्टिन्य कुल पुत्र को सर्व प्रथम म. बुद्ध के मध्यमार्ग में श्रद्धान हुआ इसलिए वे ही मब के पहिल अनुयायी थे। उपरान्त यहीं यश नामक वणिक पुत्र को भी बुद्ध ने चमत्कार दिखला कर अपने मत में दीक्षित कर भिक्ष बनाया था। इस समय म. बद्ध के अनुयायी सात थे और इनको वे 'अहंत्' कहते थे। भगवान महावीर को भी मनोकर दिव्य शक्ति की प्राप्ति थी, परन्तु उन्होंने न कभी किसी को अपना शिष्य बनाने की इच्छा की और न इस शक्ति का उपयोग इस ओर किया। इस प्रकार जब म बुद्ध के अनुयायी ६१ ( अर्हत ) हो गये तब उनने भिक्षु ग्रों से कहा कि 'हे भिक्षमों ! मैं मानवीय दैवीय सत्र बन्धनों से मुक्त हुआ हूं । हे भिक्षुनो ! तुम भी मानवीय और दैवीय सब बन्धनों से मुक्त हुए हो अब तुम, हे भिक्षयों ! अनेकों शिष्यों के लाभ के लिए, अनेकों की भलाई के लिए, संसार पर दया लाकर, मनुष्यों और देवों के लाभ
और भलाई के लिए जाओ।' इस समय 'मार' नामक देवता ने पाकर पुनः म बुद्ध को अपने धर्म प्रचार करने से रोका, परन्त उन्होंने उपेक्षा की और अपने भिक्षुओं को स्वयं ही अन्य शिष्य दीक्षित करने-"उपसम्पदा" देने का अधिकार देकर चह ओर भेज दिया।
अतएव यह स्पष्ट है कि म० बुद्ध ने तत्कालीन अवस्था को सुधारने के भाव से अपने धर्म का नीवारोपण किया था। उन्होंने प्रचलित रीति रिवाजों को लक्ष्य करके बिना किसी भेदभाव के मनुष्यों को अपने धर्म में दीक्षित करने का द्वार खोल दिया था। इससे सामाजिक वातावरण में भी सुधार हुआ था । तथापि उनका पूर्ण लक्ष्य अपने धर्म को स्थापित करने में प्रचलित साधु धर्म का सुधार करने का था। उस समय सावगण मापसी शास्त्रार्थों और वादों में ही समय को नष्ट कर देते थे। वर्ष भर में वे तीन चार महीनों के सिवाय शेष सर्व दिनों में सर्वथा इधर-उधर विचर कर सैद्धान्तिक वाद-विवादों में ही
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