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८. इस प्रकार अभ्यन्तर वेदी से ४२००० यो० भीतर जाने पर उपरोक्त भीतरी४ पर्वतों के दोनों पार्श्व भागों में (विदिशाओं में) प्रत्येक में दो दो करके कुल पाठ सूर्य द्वीप हैं । सागर के भीतर, रक्तोदा नदी के सम्मुख मागध द्वीप, जगती के अपराजित नामक उत्तर द्वार के सन्मुख वरतनु और रक्ता नदी के सम्मुख प्रभास द्वीप है। इसी प्रकार ये तीनों द्वीप-जम्बद्वीप के दक्षिण भाग में भी गंगा नदी, ब वैजयन्त नामक दक्षिण द्वार के प्रविधि भाग में स्थित है । अभ्यन्तर बेदी से १२००० योजन सागर के भीतर जाने पर सागर की वायव्य दिशा में भागध नाम का द्वीप है। इसी प्रकार लवण समुद्र के बाह्य भाग में भी ये द्वीप जानना । मतान्तर की अपेक्षा दोनों तटों से ४२००० योजन भीतर जाने पर ४२००० योजन विस्तार वाले २४, २४ द्वीप हैं। जिनमें - तो चारों दिशाओं ब विदिशामों के दोनों पार्श्व भागों में हैं और आठों अन्तर दिशाओं के दोनों पाव भागों में। विदिशावालों का नाम सुर्य द्वीप और अन्तर दिशाबालों का नाम चन्द्र द्वीप है।
६. इनके अतिरिक्त ८ कुमानुष द्वाप है। २४ अभ्यन्तर भाग में और २४ बाह्य भाग में तहां चारों दिशाओं में चार चारों विदिशाओं में ४, अन्तर दिशाओं में ८ तथा हिमवान, शिखरी व दोनों विजयाई पर्वतों के प्रणिधि भाग में हैं। दिशा विदिशा व अन्तर दिशा तथा पर्वत के पास बाले, ये चारों प्रकार के द्वीप क्रम से जगती से ५००,५००,५५० व ६०० योजन अन्तराल पर अवस्थित हैं और १००,५५,५०२५ योजन विस्तार युक्त हैं। लोक विभाग के अनुसार वे जगती से ५००,५५० ५००,६०० योजन अन्तराल पर स्थित हैं। इन कुमानुषद्वीपों में एक जांघवाला, शशकर्ण, बन्दरमुख प्रादि रूप आकृतियों के धारक मनुष्य बसते हैं। धातकी खण्ड द्वीप की दिशात्रों में भी इस सागर में इतने ही अर्थात २४ अन्तर्वीप हैं । जिनमें रहने वाले कुमानुष भी वैसे ही हैं ।
२. धातकी खण्ड निर्देश१. लवणोद को वेष्ठित करके ४००.००० योजन विस्तृत ये द्वितीय द्वीप हैं। इसके चारों तरफ भी एक जगती है।
२. इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में उत्तर दक्षिण लम्बायमान दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागों में विभक्त हो जाता है। प्रत्येक पर्वत पर ४ कूट हैं। प्रथम कूट पर जिन मन्दिर है और शेष पर व्यन्तर देव रहते हैं।
हिम इन्द्रक बिल के समीप नीला, पंका, महानीला और महापंका ये चार श्रेणीबद्ध बिल कम से पूर्वादिक दिशाओं में स्थित है।
अवधिस्थान इन्द्रक बिल के समीप पूजादिक चारों दिशाओं में काल, रौरव, महाकाल और चतृथं महाशैरव ये चार श्रेणीबद्ध बिल हैं।
शेप द्वितीयादिक इनके बिलों के समी। पूर्वादिक दिशाओं में स्थित श्रेणीबद्ध बिलों के और पहिले इन्द्रक बिलों के समीप में स्थित द्वितीयादिव थेगोवद्ध बिलों के नाम नष्ट हो गये हैं।
दिशा और विदिशाओं के मिलकर कुल तीन सौ अठासी धेरणी बद्र बिल हैं। इनमें सीमन्त इन्द्रक बिल के मिला देने पर सब तीन सौ नवासी होते हैं। सीमन्त इन्ट्रक सम्बन्धी थे. ब. बिल ३८८ सीमन्त सहित ३८६ हैं।
इस प्रकार प्रथम पृथ्वी के प्रथम पाथड़े में इन्द्रक सहित श्रेणी बद्ध बिल तीन को नवासी हैं। इसके आगे द्वितीयादिक परिवयों में हीन होते होते माधवी पृथ्वी में सिर्फ पांच ही इन्द्रक व प्रेणीबद्ध बिल रह गये हैं । धर्मा पुथ्वी के प्रथम पाथड़े में स्थित ई. व श्रे. न. बिल ३८६ ।
आठों ही दिशाओं में यथाक्रम से एक एक बिल कम होता गया है । इस प्रकार एक एक के कम होने से सम्पूर्ण हानि के होने पर अन्त में पांच ही दिल दोष रह जाते हैं।
इष्ट इन्द्रक प्रमाण में से एक कम कर अवशिष्ट को आठ से गुणा करने पर जो गुरषफल प्राप्त हो, उसे तीन सौ नबामी में में घटा देने पर दोष नियम विवक्षित पाथड़े के श्रेणी बद्ध सहित इन्द्रक का प्रमाण होता है।