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चौपाई
यह भव होय धर्मसो सार, कल्याणक नर को सविचार । सकल मनोरथ पूरण जान, दुख बिना जग कौति महान् ।।७३।। परभव इन्द्र विभूति अपार, के सरवारथ सिद्धि विचार । तीर्थकर चल चत्रो होइ, धर्म प्रताप जानिय सोई॥७४||
दोहा
धर्म बिना
हि और जग, सुख करता तजे पा५ । साम दबा दिया तस,उक्त
वली तास ।।७५।।
चौपाई
प्रथम अहिंसा सत्यास्तेय, ब्रह्मचर्य संगादि रहेय। ई- भाग एषणा दान, निक्षेपण व्युत्सर्ग बखान ।।६।। मनोगुप्ति वच गुप्ति विचार, काय गुप्ति मिल तीन प्रकार । यह चारित्र त्रयोदश जान, साधं राग रहित गुणवान १७७|| तथा मूलगुण सब जानिये, दशलक्षण क्षमादि बखानिये । परम धरम करता सुख सार, मोह अक्ष सबको अपहार ।।८।। बुद्धिबल भो राजकुमार ! धर्म जती गोचर हितधार । काम आदि जे अरि दुग्वदाई, तप अमि सौं तिन घात कराई || धर्म चित्त में धरो महान, होय धर्म तं सर शिव थान । धर्म जगत में सत्र सुख दाय, नहीं धर्म ते और सहाय ॥८॥ नहीं साध्य अब इहित और, तिहि ते मोह सुभद हन ठौर । धर्म जतन सौ पालो सार, मुक्तितनों साधक सखकार ॥८॥ इहि प्रकार मुनि वचन, सुनेह, कनकोज्वल नप चिन्तौ येह। भव' तन भोग विरक्त अपार द्वादशभावन हिरदं धार ॥२।। जोलौं कर्म वेदना लियें, भ्रम जगत में सुध नहि हियै । कबहूंक नार गर्भ गिर परै, जन्म होइ विकलप सो मरै ।।८३॥ सुर अहमिन्द्र आदि हरिराय, सबै काल के वश्य पराय । जन कोई जीवन मद करें, मूढ़ मन्द बुध को अनुसरै ।।६४॥ धर्मकार्य को बरध सार,: मद हिय धरै न एक लगार। अरु जे शठ मद धारै अंग, ते जैहैं यम पथ सर्वग ।।८।। अतिहि विनश्वर कारज याहि, सर्व अवस्था निशदिन माही। तातै काल लंग नहि कर, मरण समय ना शंका धरै ।।६।।
हैं। वस्तुत: धर्म वह है, जिस भव में सम्पदामों की प्राप्ति और मनोकामनायों की पूर्ति होती है तथा दुःख आदि भयानक आपत्तियों का सर्वथा नाश होता है। केवल यही ही नहीं, तीनों लोकों में प्रशंसा होती है। और परभव में राज्य ग्रादि को विभूति सर्वार्थ सिद्धि पद, तीर्थकर पद, बलभद्र चक्रवर्ती श्रादि पदों की प्राप्ति सुलभ होती है। जिस धर्म का उपदेश के वली ने किया है, जो अहिंसा स्वरूप निष्पाप है, वही धर्म है। अन्य दूसरा कोई धर्म नहीं है।
वह धर्म अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग, ईयो भाषा, एषणा प्रादान' निक्षेपण, उत्सर्ग, मनो गुप्ति, वचन गुप्ति, काय-गुप्ति इस तरह तेरह प्रकार का है, इसे वीतरागी मुनी धारण करते हैं। अथवा उत्तम क्षमादि देश स्वरूप परम धर्म को मोहेन्द्रिय रूपी चारों को परास्त करने वाले योगी धारण करते हैं। अतएव हे बुद्धिमान ! तू मुनि धर्म को धारण कर और कुमार अवस्था में ही शीघ्र कामादि शत्रुओं को तप रूपी खड्ग से मार सदा चित्त में धर्म का ध्यान कर धर्म से अपने को शोभायमान कर, तू धर्म के लिए गृह का त्याग कर, धर्म के अतिरिक्त और दूसरा पाचरण न कर, सदा धर्म को शरण ग्रहण कर और धर्म में ही स्थिर रहा । धर्म सदा तुम्हारी रक्षा करेगा।
विशेष बताने की आवश्यकता नहीं, अव तू शीघ्र से शीघ्र मोहरूप महान योद्धा को परास्त कर मुक्ति के लिए धर्म अंगीकार कर। इस प्रकार धर्मोपदेश करने वाले उन मुनि के वचनों को सुनकर उसे संसार शरीर, स्त्री आदि भोगों से विरक्ति उत्पन्न हुई। उसने विचार किया कि परोपकारी मुनि महाराज ने मेरे हित के लिए ही धर्मोपदेश किया है, अत: मुझं मोक्ष प्राप्ति के लिये शीघ्र ही श्रेष्ठ तप को ग्रहण करना चाहिये। कारण न जाने किस समय मत्यु हो जाय, जो काल गर्भ के बालक को मार डालता है, उसका क्या ठिकाना। जब यमराज अहमिन्द्र देवेन्द्र प्रादि महान पुण्यवानों तक को नहीं छोड़ता तब हम जैसे पुण्य हीन व्यक्तियों के जीवित रहने की क्या प्राशा ! वृद्ध होने पर भी धर्म का त्याग नहीं करना चाहिये, जो
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